Tuesday, October 30, 2012

जाने वाले कब लौटे हैं क्यूँ करते हैं वादे लोग

जाने वाले कब लौटे हैं क्यूँ करते हैं वादे लोग
नासमझी में मर जाते हैं हम से सीधे सादे लोग

पूछा बच्चों ने नानी से - हमको ये बतलाओ ना
क्या सचमुच होती थी परियां, होते थे शहज़ादे लोग ?

टूटे सपने, बिखरे अरमां, दाग़ ए दिल और ख़ामोशी
कैसे जीते हैं जीवन भर इतना बोझा लादे लोग

अम्न, वफ़ा, नेकी, सच्चाई, हमदर्दी की बात करें
इस दुनिया में मिलते है अब, ओढ़े कितने लबादे लोग

कट कर रहते - रहते हम पर वहशत तारी हो गई है
ए मेरी तन्हाई जा तू, और कहीं के ला दे लोग

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Wednesday, September 14, 2011

क्या कभी सोचे गए हम

अजनबी खुद को लगे हम
इस कदर तन्हा हुए हम

उम्र भर इस सोच में थे
क्या कभी सोचे गए हम

खूबसूरत ज़िंदगी थी
तुम से मिलकर जब बने हम

चाँद दरिया में खड़ा था
आसमाँ तकते रहे हम

सुबह को आँखों में रख कर
रात भर पल - पल जले हम

खो गए हम भीड़ में जब
फिर बहुत ढूँढे गए हम

इस ज़मीं से आसमां तक
था जुनूँ उलझे रहे हम


जीस्त के रस्ते बहुत थे
हर तरफ रोके गए हम

लफ्ज़ जब उरियाँ हुए तो
फिर बहुत रुसवा हुए हम

जागने का ख़्वाब ले कर
देर तक सोते रहे हम

तेरे सच को पढ़ लिया था
बस इसी खातिर मिटे हम

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Tuesday, June 7, 2011

चुन लिया सुबह के सूरज का उजाला मैंने

अपने हर दर्द को अशआर में ढाला मैंने
ऐसे रोते हुए लोगों को संभाला मैंने

शाम कुछ देर ही बस सुर्ख़ रही, हालांकि
खून अपना तो बहुत देर उबाला मैंने

बच्चे कहते हैं कि एहसान नहीं फ़र्ज़ था वो
अपनी ममता का दिया जब भी हवाला मैंने

कभी सरकार पे, किस्मत पे, कभी दुनिया पर
दोष हर बात का औरों पे ही डाला मैंने

लोग रोटी के दिलासों पे यहाँ बिकते हैं
जब कि ठुकरा दिया सोने का निवाला मैंने

आप को शब् के अँधेरे से मुहब्बत है, रहे
चुन लिया सुबह के सूरज का उजाला मैंने

आज के दौर में सच बोल रही हूँ 'श्रद्धा'
अक्ल पर अपनी लगा रक्खा है ताला मैंने

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Saturday, February 12, 2011

मेरी गजलों में महक होगी, तरावत होगी

जब कभी मुझको गम-ए-यार से फुर्सत होगी
मेरी गजलों में महक होगी, तरावत होगी
तरावत= ताज़गी

भुखमरी, क़ैद, गरीबी कभी तन्हाई, घुटन
सच की इससे भी जियादा कहाँ कीमत होगी

धूप-बारिश से बचा लेगा बड़ा पेड़ मगर
नन्हे पौधों को पनपने में भी दिक्क़त होगी

बेटियों के ही तो दम से है ये दुनिया कायम
कोख में इनको जो मारा तो क़यामत होगी

आज होंठों पे मेरे खुल के हंसी आई है
मुझको मालूम है उसको बड़ी हैरत होगी

नाज़ सूरत पे, कभी धन पे, कभी रुतबे पर
ख़त्म कब लोगों की आखिर ये जहालत होगी

जुगनुओं को भी निगाहों में बसाए रखना
काली रातों में उजालों की ज़रूरत होगी

वक़्त के साथ अगर ढल नहीं पाईं 'श्रद्धा'
ज़िंदगी कुछ नहीं बस एक मुसीबत होगी

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Sunday, January 16, 2011

टूटे हुए दिल की है बस इतनी-सी कहानी

शीशे के बदन को मिली पत्थर की निशानी
टूटे हुए दिल की है बस इतनी-सी कहानी

फिर कोई कबीले से कहीं दूर चला है
बग़िया में किसी फूल पे आई है जवानी

कुछ आँखें किसी दूर के मंज़र पर टिकी हैं
कुछ आँखों से हटती नहीं तस्वीर पुरानी

औरत के इसी रूप से डर जाते हैं अब लोग
आँचल भी नहीं सर पे नहीं आँख में पानी

तालाब है, नदियाँ हैं, समुन्दर है पर अफ़सोस
हमको तो मयस्सर नहीं इक बूंद भी पानी

छप्पर हो, महल हो, लगे इक जैसे ही दोनों
घर के जो समझ आ गए ‘श्रद्धा’ को मआनी

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Thursday, November 25, 2010

तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना

तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखना
सूख जाएगा समुन्दर देखना

अपनी आदत, अपने अन्दर देखना
देखना खुद को निरंतर देखना

हर बुलंदी पर है तन्हाई बहुत
सख्त मुश्किल है सिकंदर देखना

शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं
देखना मेरा मुक़द्दर देखना

खून जिनका धर्म और ईमान है
उनके छज्जे पर कबूतर देखना

झूठ-सच का फैसला लेना हो जब
चीखता है कौन अन्दर देखना

मेरा और साहिल का रिश्ता है अजब
दोनों के रस्ते में पत्थर, देख ना!

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Wednesday, October 20, 2010

मुद्दतों हमने किया, पागलपन

प्यार में शर्त-ए-वफ़ा पागलपन
मुद्दतों हमने किया, पागलपन

हमने आवाज़ उठाई हक की
जबकि लोगों ने कहा, पागलपन

जाने वालों को सदा देने से
सोच क्या तुझको मिला, पागलपन

लोग सच्चाई से कतरा के गए
मुझ पे ही टूट पड़ा, पागलपन

जब भी देखा कभी मुड़ कर पीछे
अपना माज़ी ही लगा, पागलपन

खो गए वस्ल के लम्हे "श्रद्धा"
मूंद मत आँख, ये क्या पागलपन

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