काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाए दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहती
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती
बाम - छज्जा
ज़ीस्त - ज़िंदगी
72 comments:
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाएँ दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
बहुत सुंदर रचना, धन्यवाद
बहुत सुंदर...उम्दा रचना..
पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहती
aap toh kamaal ki shaayari karati hain .padhate samay . ham palaken tak nahin jhapakte
आप की इस गज़ल को पढ़ने के बाद एक समस्या उत्पन्न हो गयी है, किस शेर की तारीफ़ की जाए और किसे छोड़ दिया जाए.
कुछ हल्का-फुल्का भी पोस्ट किया कीजिए जिस पर हम जैसे बंदे कुछ कीड़े निकाल सकें और स्वयं को तुष्ट कर लिया करें.
बहरहाल, बहुत...बहुत...बहुत दिनों के बाद आपने कुछ पोस्टिंग की है, पूरी गज़ल बहुत ही अच्छे ढंग से रची है आपने.
जरा जल्दी-जल्दी लिख करें.
बहुत सुन्दर गज़ल्…………।बधाई।
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती
बहुत सुन्दर गज़ल
हर शेर में बहुत गहराई
लाजवाब
आपकी गजलों में एक और मील का पतथर
उम्दा गज़ल हुई है श्रृद्धा जी.
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती
बहुत ख़ूब!
ख़ास तौर पर मतला बहुत उम्दा
मिसर ए सानी में तमन्नाओं की पूरी दुनिया ही सिमट आई है
अच्छे शायर का कलाम पढ़ने से अच्छा कलाम तो मिलता ही है...
एक फ़ायदा यह है...
कि खुद अच्छा कहने की प्रेरणा भी मिलती है.
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
से.......
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे ’श्रद्धा’ ये तबीयत ही बहलती रहती
तक.......
ग़ज़ल का सफ़र शानदार रहा....
मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं.
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल....
na jane kyun ye line yaad aa gayi
आंखों के बीहड़ सूखे ने सुखा दिया जड़ से,
इस सामान्यों की क्या तुलना पीपल औ बड़ से
नहीं रहे कंधे जिनसे लग के
दुखड़े रोते थे
अब न रहे वो रूख कि जिन पर
पत्ते होते थे
LAAJWAAB GAZAL KE LIYE AAPKO
DHERON MUBAARKEN
gazal aor aap me ek rishta sa hai .jo lagta hai taumr chalega.aor nikhrega bhi..........i like these two.....
एक इक शेर मेरे ज़ेहन में ठहरा रहता
याद की रेल तो रुक-रुक के भी चलती रहती
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाएँ दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
bhut khoob sharda ji...............
bhut achi kavita again...................
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती
--
गजल वाकई में अच्छी है!
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाएँ दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
ghazal ki har line laazavaab hai...........aur unme bhi in sheron ka kya kahna.........
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
क्या खूब कहा है। आपकी तो हर गजल एक रत्न है जिसे संभाल कर रखा जाये।
SHRIDHA JI,
VANDE !
AAJ AAPKE BLOG PAR SUBHA 5 BAJE BHRAMAN KIYA.BAHUT ACHHA LAGA.BAHUT ACHHI RACHNAYEN PADHNE KO MILI . BAHUT AANAND AAYA. BADHAI HO !
25 JUNE KI POST BAHUT BHAI.GAZAL KA YE SHER BAHUT RUCHA -
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
BADHAAI !
SHRIDHA JI,
VANDE !
AAJ AAPKE BLOG PAR SUBHA 5 BAJE BHRAMAN KIYA.BAHUT ACHHA LAGA.BAHUT ACHHI RACHNAYEN PADHNE KO MILI . BAHUT AANAND AAYA. BADHAI HO !
25 JUNE KI POST BAHUT BHAI.GAZAL KA YE SHER BAHUT RUCHA -
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
BADHAAI !
SHRIDHA JI,
VANDE !
AAJ AAPKE BLOG PAR SUBHA 5 BAJE BHRAMAN KIYA.BAHUT ACHHA LAGA.BAHUT ACHHI RACHNAYEN PADHNE KO MILI . BAHUT AANAND AAYA. BADHAI HO !
25 JUNE KI POST BAHUT BHAI.GAZAL KA YE SHER BAHUT RUCHA -
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
BADHAAI !
khoobsurat rachna!
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाएँ दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
अब अल्का जी जैसी मेरी भी हालत हो गयी है। क्या कहूँ?
लाजवाब प्रस्तुति बधाई
बहुत सुंदर रचना है . वाकई आप बहुत खूब लिखती हैं. बधाई !
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
bahut achchha sher huaa hai
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती
waah..shraddha ji...bahut dino baad aapki gazal padhne ka sukh mila...bahut khoobsurat ashaar...badhai aapko..
Umda, badhiya, khubsurat........har lafz kuchh kahta hua...:)
Shraddha jee aap ki gajal ki yahi khashiyat hai........jo aapko sabse alag karti hai.......behtareen!!
Alka jee ne sahi kaha, jara jaldi jaldi likhen...:)
bahoot khoob
श्रद्धा जैन जैसी बानगी नहीं लगी। ग़ुस्ताख़ी माफ!
Dear Bharat Ki Parveen Shakir,
You have become an accomplished Shayar. With this ghazal you have taken the final step of becoming accomplished because this ghazal, in my view, is bad.
There has not been a single great poet who has not written some lowly poems. You have so far been writing amazing stuff. But with this ghazal you have fulfilled the void of a bad ghazal from you as well :-)
I am sure you wrote it in some kind of hurry or distraction.
Sorry for the negative review, but it an honest one from my viewpoint.
यह ब्लॉग देख ख़ुशी हुई. आप बहुत अच्छा लिखती हैं, मुझे यहाँ बार बार आना होगा.
पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहती
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती
गजब की ग़ज़ल है ... खास कर ये पंक्तियाँ तो मों को भा गयी ...
humesha ki tarah aapki ye ghazal bhi pasand aayi.
श्रद्धा जी,
बहुत सुंदर गज़ल. सभी शेर अच्छे लगे.
Umda Gazal, As usual.
ye sher bahut bhaye :
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती
waah bahut khoob...har sher...
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
सभी शेर बहुत अच्छे हैं, लेकिन मेरी निगाहें तो पूरी गज़ल पढने के बाद यहीं अटक गईं. सुन्दर गज़ल, हमेशा की तरह.
ख़ूबसूरत ग़ज़ल, बहुत पसन्द आई मगर अपनी साफ़गोई को क्या करूँ - कि पहली नज़र में 'ज्योति' कुछ खटक रहा है। 'शान्त', 'सागर', 'नदिया' जिस तरह अंगीकार किए हैं इस नवगीत-ग़ज़ल ने - 'ज्योति' में कुछ है जो …
शायद मैं गलत भी हो सकता हूँ - अच्छा हो अगर होऊँ ही। फिर लौटकर आता हूँ, तभी राय क़ायम करूँगा।
खिलौने वाली बात और फ़र्ज़ के दिन और याद की रात - ख़ूब हैं - दाद क़बूल कीजिए।
आपकी तारीफें करनी आसान कहाँ हैं जी...?
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती
bahut khoobsoorat gazal kahee hai
Bhaut Sundar Rachan he... Jindgi ke such ko badi shiddat se bya kiya he
आदरणीया श्रद्धाजी
सलाम आपको और आपकी क़लम को !
चौथी बार पढ़ने आया हूं … लेकिन , इस बार भी रचना के अनुरूप शब्द नहीं मिल पाए …
इस कदर आपकी ग़ज़ल निःशब्द कर रही है …
बस , हाज़िरी मानलें हमारी …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहति
वाह , बहुत खूब..
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती
बिलकुल सच कहा , बहुत बढ़िया ..
NICE....................
very nice
Dr maharaj singh parihar
www.vichar-bigul.blogspot.com
"तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती" वाह क्या बात है..बहुत अच्छा शे’र कहा है श्रद्धा जी... बधाई.
bahut khoob, pata naheen tha ki hindustan kee sarzameen se door singapore men bhee humaree zubaan is khubsoorat andaaz men likhee ja rahee hai. all the best and pls do keep writting
बहुत खूबसूरती से भावनाओं को शब्द दिए हैं ....
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ..... आपके लिए .
श्रद्धा जी, आप की गजलें मोहती हैं. डी एल ए के ब्लागचिंतन स्तम्भ में शनिवार को आप के ब्लाग पर चर्चा. पेज 11 पर देखें. साइट है
ww.dlamedia.com
पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहती
वाह..बहुत बढ़िया ग़ज़ल...हर एक लाइन कमाल की है...
बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई!!!
lajawab rachana.........
bahut accha likhtee hai aap .
shraddha jee
achchhi gazal huyi hai is baar bhee
ye sher khaas taur par pasand aaye.
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाए दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
saadar
shrddha ji,
ye 'jab ke'kya hota hai? hona to ye chahiye 'jab ki'.
sher likhte samay type ka dhyaan bhii rakha karen.
shrddha, prakash badal ki baat se mai bhi sahamat hoon.
शुक्रिया श्रद्धा जी गुलमोहर में आने के लिए। शुक्रिया सालगिरह की बधाई के लिए। इस बहाने मैं भी चला आया यहां। माफ करें आपकी ग़ज़ल छूती है। मगर आख्रिरी शेर को लेकर मेरा मत कुछ अलग है। यह सही है कि आपने केवल संभावना व्यक्त की है। पर मुझे लगता है खिलौना कहकर न केवल आपने अपने लिए वरन् औरत के प्रति उस भावना को ही बल दिया है जिसे निर्बल करने की जरूरत है। क्या ही अच्छा हो कि इस शेर को कुछ अलग तरह कहें,मसलन-
तू अगर होती चांदनी तो बहुत बेहतर था
“श्रद्धा” मकां की छत पर टहलती रहती
और गजलों की तरह एक और खूबसूरत ग़ज़ल. अच्छी पोस्ट.
इस्लाम में कंडोम अवश्य पढ़ें http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/07/blog-post.html
बहुत सुंदर!!
श्रद्धा जी,
काफी थका हुआ था, उर्जा के लिए एक बेहतरीन रचना की तलाश थी| इन उँगलियों ने बस सीधे इसी ब्लॉग का एड्रेस टाइप किया| और शुक्रिया एक बार फिर इतनी बेहतरीन रचना freely online करने के लिए|
-- मयंक मिश्र
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती
श्रद्धाजी ! आदाब!
इन तीन शेरों के लिए आपको बारहा सलाम।
ये बेहद संजीदा हैं ओर बेशकीमती भी ...
Some people call you-parvin shakir but in my mind you are Toru Dutt of Hindi. Pretty good.
तू अगर होती एक खिलौना ....,.....
श्रद्धा जी ! बेहतरीन लिखा । लिखा क्या लिखती हो ।
सहज अभिव्यक्ति ।
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
...bahut khoob. sunder gazal ke liye badhai.
आदरणीय.....
आची ग़ज़ल है.......
मतला तो अच्छा है ही.....आगे के शेर भी खूबसूरत बयानी अपने आप में समेटे हुए हैं.....
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
मतले के अलावा यह शेर भी हमें बहुत पसंद आया...
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती
श्रद्धा जी साखी पर ग़ज़लों को अपना समर्थन देने के लिए बहुत-बहुत आभार. हालांकि अपनों में यह आभार प्रकटीकरण सही तो नहीं लगता लेकिन मन नहींे मानता. आपके ब्लाग पर नई पोस्ट कई दिन से नहीं आयी क्या बात है?
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाए दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
vaise aap ki har rachna hi umda hoti h..lekin ye dil ko chhu gai.
शब्दों के प्रति श्रद्धा बढ़ाने में
श्रद्धा की गजलों का बड़ा हाथ है।
आज समाचार पत्रों में सिंगापुर का बड़ा नाम है। आज के हिन्दी समाचार पत्र देखें।
amazing.....amazing!
बहुत सुंदर रचना ... वाह वाह ...!
Bahut Hi badhiya likha hai
thanks
maine apne custom msg me laga rakha hai :-
"ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता,
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती |
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था,
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती ||"
Soory Bina aapki permission ke laga liya
Sansar Grewal
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती
अच्छी ग़ज़ल ....
श्रद्धा जी, आप की गजलें मोहती हैं. डी एल ए के ब्लागचिंतन स्तम्भ में शनिवार को आप के ब्लाग पर चर्चा. पेज 11 पर देखें. साइट है ww.dlamedia.com
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