Friday, June 25, 2010

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती

फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाए दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती

पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहती

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती

तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती

बाम - छज्जा
ज़ीस्त - ज़िंदगी

73 comments:

राज भाटिय़ा June 25, 2010 at 5:44 PM  

फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाएँ दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
बहुत सुंदर रचना, धन्यवाद

sanu shukla June 25, 2010 at 6:29 PM  

बहुत सुंदर...उम्दा रचना..

प्रज्ञा पांडेय June 25, 2010 at 6:43 PM  

पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहती
aap toh kamaal ki shaayari karati hain .padhate samay . ham palaken tak nahin jhapakte

alka mishra June 25, 2010 at 6:48 PM  

आप की इस गज़ल को पढ़ने के बाद एक समस्या उत्पन्न हो गयी है, किस शेर की तारीफ़ की जाए और किसे छोड़ दिया जाए.
कुछ हल्का-फुल्का भी पोस्ट किया कीजिए जिस पर हम जैसे बंदे कुछ कीड़े निकाल सकें और स्वयं को तुष्ट कर लिया करें.
बहरहाल, बहुत...बहुत...बहुत दिनों के बाद आपने कुछ पोस्टिंग की है, पूरी गज़ल बहुत ही अच्छे ढंग से रची है आपने.
जरा जल्दी-जल्दी लिख करें.

vandana gupta June 25, 2010 at 7:04 PM  

बहुत सुन्दर गज़ल्…………।बधाई।

M VERMA June 25, 2010 at 7:10 PM  

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती
बहुत सुन्दर गज़ल
हर शेर में बहुत गहराई
लाजवाब

شہروز June 25, 2010 at 7:14 PM  

आपकी गजलों में एक और मील का पतथर

shikha varshney June 25, 2010 at 8:45 PM  

उम्दा गज़ल हुई है श्रृद्धा जी.

इस्मत ज़ैदी June 25, 2010 at 9:46 PM  

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती

बहुत ख़ूब!
ख़ास तौर पर मतला बहुत उम्दा
मिसर ए सानी में तमन्नाओं की पूरी दुनिया ही सिमट आई है

Unknown June 25, 2010 at 9:51 PM  

वाह...बेहतरीन गजल..........अनुभूतियों की जादुई अभिव्यक्ति

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' June 25, 2010 at 10:08 PM  

अच्छे शायर का कलाम पढ़ने से अच्छा कलाम तो मिलता ही है...
एक फ़ायदा यह है...
कि खुद अच्छा कहने की प्रेरणा भी मिलती है.

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
से.......
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे ’श्रद्धा’ ये तबीयत ही बहलती रहती
तक.......
ग़ज़ल का सफ़र शानदार रहा....
मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं.

संगीता स्वरुप ( गीत ) June 25, 2010 at 11:01 PM  

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल....

Unknown June 25, 2010 at 11:02 PM  

na jane kyun ye line yaad aa gayi


आंखों के बीहड़ सूखे ने सुखा दिया जड़ से,
इस सामान्यों की क्या तुलना पीपल औ बड़ से
नहीं रहे कंधे जिनसे लग के
दुखड़े रोते थे

अब न रहे वो रूख कि जिन पर
पत्ते होते थे

PRAN SHARMA June 25, 2010 at 11:03 PM  

LAAJWAAB GAZAL KE LIYE AAPKO
DHERON MUBAARKEN

डॉ .अनुराग June 25, 2010 at 11:13 PM  

gazal aor aap me ek rishta sa hai .jo lagta hai taumr chalega.aor nikhrega bhi..........i like these two.....


एक इक शेर मेरे ज़ेहन में ठहरा रहता
याद की रेल तो रुक-रुक के भी चलती रहती



तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती

NEER June 25, 2010 at 11:49 PM  

फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाएँ दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती

bhut khoob sharda ji...............

bhut achi kavita again...................

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' June 26, 2010 at 12:03 AM  

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती
--
गजल वाकई में अच्छी है!

शिवांश शर्मा June 26, 2010 at 1:20 AM  

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती

फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाएँ दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती

ghazal ki har line laazavaab hai...........aur unme bhi in sheron ka kya kahna.........

Vinod Sharma June 26, 2010 at 9:39 AM  

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
क्या खूब कहा है। आपकी तो हर गजल एक रत्न है जिसे संभाल कर रखा जाये।

ओम पुरोहित'कागद' June 26, 2010 at 1:39 PM  

SHRIDHA JI,
VANDE !
AAJ AAPKE BLOG PAR SUBHA 5 BAJE BHRAMAN KIYA.BAHUT ACHHA LAGA.BAHUT ACHHI RACHNAYEN PADHNE KO MILI . BAHUT AANAND AAYA. BADHAI HO !
25 JUNE KI POST BAHUT BHAI.GAZAL KA YE SHER BAHUT RUCHA -
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
BADHAAI !

ओम पुरोहित'कागद' June 26, 2010 at 1:40 PM  

SHRIDHA JI,
VANDE !
AAJ AAPKE BLOG PAR SUBHA 5 BAJE BHRAMAN KIYA.BAHUT ACHHA LAGA.BAHUT ACHHI RACHNAYEN PADHNE KO MILI . BAHUT AANAND AAYA. BADHAI HO !
25 JUNE KI POST BAHUT BHAI.GAZAL KA YE SHER BAHUT RUCHA -
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
BADHAAI !

ओम पुरोहित'कागद' June 26, 2010 at 1:41 PM  

SHRIDHA JI,
VANDE !
AAJ AAPKE BLOG PAR SUBHA 5 BAJE BHRAMAN KIYA.BAHUT ACHHA LAGA.BAHUT ACHHI RACHNAYEN PADHNE KO MILI . BAHUT AANAND AAYA. BADHAI HO !
25 JUNE KI POST BAHUT BHAI.GAZAL KA YE SHER BAHUT RUCHA -
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
BADHAAI !

सुरेन्द्र "मुल्हिद" June 26, 2010 at 2:44 PM  

khoobsurat rachna!

निर्मला कपिला June 26, 2010 at 4:10 PM  

फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाएँ दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
अब अल्का जी जैसी मेरी भी हालत हो गयी है। क्या कहूँ?
लाजवाब प्रस्तुति बधाई

Raj kamal June 26, 2010 at 4:41 PM  

बहुत सुंदर रचना है . वाकई आप बहुत खूब लिखती हैं. बधाई !

संजीव गौतम June 26, 2010 at 4:50 PM  

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती

bahut achchha sher huaa hai

Akhil June 26, 2010 at 5:01 PM  

तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती

waah..shraddha ji...bahut dino baad aapki gazal padhne ka sukh mila...bahut khoobsurat ashaar...badhai aapko..

मुकेश कुमार सिन्हा June 26, 2010 at 6:04 PM  

Umda, badhiya, khubsurat........har lafz kuchh kahta hua...:)

Shraddha jee aap ki gajal ki yahi khashiyat hai........jo aapko sabse alag karti hai.......behtareen!!

Alka jee ne sahi kaha, jara jaldi jaldi likhen...:)

Akhilesh pal blog June 26, 2010 at 6:58 PM  

bahoot khoob

Prakash Badal June 26, 2010 at 10:22 PM  

श्रद्धा जैन जैसी बानगी नहीं लगी। ग़ुस्ताख़ी माफ!

Lalit Kumar June 26, 2010 at 11:13 PM  

Dear Bharat Ki Parveen Shakir,

You have become an accomplished Shayar. With this ghazal you have taken the final step of becoming accomplished because this ghazal, in my view, is bad.

There has not been a single great poet who has not written some lowly poems. You have so far been writing amazing stuff. But with this ghazal you have fulfilled the void of a bad ghazal from you as well :-)

I am sure you wrote it in some kind of hurry or distraction.

Sorry for the negative review, but it an honest one from my viewpoint.

S.M.Masoom June 26, 2010 at 11:42 PM  

यह ब्लॉग देख ख़ुशी हुई. आप बहुत अच्छा लिखती हैं, मुझे यहाँ बार बार आना होगा.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" June 27, 2010 at 1:06 AM  

पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहती

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
और नदिया की लहर खूब उछलती रहती


गजब की ग़ज़ल है ... खास कर ये पंक्तियाँ तो मों को भा गयी ...

Manish Kumar June 27, 2010 at 2:44 AM  

humesha ki tarah aapki ye ghazal bhi pasand aayi.

Rajeev Bharol June 27, 2010 at 3:33 AM  

श्रद्धा जी,
बहुत सुंदर गज़ल. सभी शेर अच्छे लगे.

संत शर्मा June 27, 2010 at 12:00 PM  

Umda Gazal, As usual.

ye sher bahut bhaye :

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती

तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती

अर्चना तिवारी June 27, 2010 at 1:42 PM  

waah bahut khoob...har sher...

वन्दना अवस्थी दुबे June 27, 2010 at 7:01 PM  

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
सभी शेर बहुत अच्छे हैं, लेकिन मेरी निगाहें तो पूरी गज़ल पढने के बाद यहीं अटक गईं. सुन्दर गज़ल, हमेशा की तरह.

Himanshu Mohan June 27, 2010 at 8:32 PM  

ख़ूबसूरत ग़ज़ल, बहुत पसन्द आई मगर अपनी साफ़गोई को क्या करूँ - कि पहली नज़र में 'ज्योति' कुछ खटक रहा है। 'शान्त', 'सागर', 'नदिया' जिस तरह अंगीकार किए हैं इस नवगीत-ग़ज़ल ने - 'ज्योति' में कुछ है जो …
शायद मैं गलत भी हो सकता हूँ - अच्छा हो अगर होऊँ ही। फिर लौटकर आता हूँ, तभी राय क़ायम करूँगा।

खिलौने वाली बात और फ़र्ज़ के दिन और याद की रात - ख़ूब हैं - दाद क़बूल कीजिए।

manu June 28, 2010 at 11:36 AM  

आपकी तारीफें करनी आसान कहाँ हैं जी...?

प्रदीप मानोरिया June 28, 2010 at 12:04 PM  

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती
bahut khoobsoorat gazal kahee hai

Anonymous June 28, 2010 at 4:52 PM  

Bhaut Sundar Rachan he... Jindgi ke such ko badi shiddat se bya kiya he

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार June 29, 2010 at 9:21 AM  

आदरणीया श्रद्धाजी
सलाम आपको और आपकी क़लम को !

चौथी बार पढ़ने आया हूं … लेकिन , इस बार भी रचना के अनुरूप शब्द नहीं मिल पाए …
इस कदर आपकी ग़ज़ल निःशब्द कर रही है …

बस , हाज़िरी मानलें हमारी …

- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) June 29, 2010 at 1:06 PM  

पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहति

वाह , बहुत खूब..

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती

बिलकुल सच कहा , बहुत बढ़िया ..

Randhir Singh Suman June 29, 2010 at 8:40 PM  

NICE....................

Randhir Singh Suman June 29, 2010 at 8:40 PM  
This comment has been removed by the author.
डा. महाराज सिंह परिहार July 1, 2010 at 12:25 AM  

very nice

Dr maharaj singh parihar
www.vichar-bigul.blogspot.com

राजेश चड्ढ़ा July 1, 2010 at 12:40 AM  

"तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती" वाह क्या बात है..बहुत अच्छा शे’र कहा है श्रद्धा जी... बधाई.

mai... ratnakar July 1, 2010 at 1:00 AM  

bahut khoob, pata naheen tha ki hindustan kee sarzameen se door singapore men bhee humaree zubaan is khubsoorat andaaz men likhee ja rahee hai. all the best and pls do keep writting

ज्योत्स्ना पाण्डेय July 2, 2010 at 3:01 AM  

बहुत खूबसूरती से भावनाओं को शब्द दिए हैं ....

मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ..... आपके लिए .

Dr Subhash Rai July 2, 2010 at 3:49 AM  

श्रद्धा जी, आप की गजलें मोहती हैं. डी एल ए के ब्लागचिंतन स्तम्भ में शनिवार को आप के ब्लाग पर चर्चा. पेज 11 पर देखें. साइट है
ww.dlamedia.com

विनोद कुमार पांडेय July 2, 2010 at 9:41 AM  

पाँव फैलाए अँधेरा है हर इक कोने में
ज्योति हालाँकि हर इक बाम पे जलती रहती

वाह..बहुत बढ़िया ग़ज़ल...हर एक लाइन कमाल की है...

बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई!!!

Apanatva July 2, 2010 at 9:47 AM  

lajawab rachana.........
bahut accha likhtee hai aap .

अमिताभ त्रिपाठी ’ अमित’ July 3, 2010 at 7:29 PM  

shraddha jee
achchhi gazal huyi hai is baar bhee
ye sher khaas taur par pasand aaye.
ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती

फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाए दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती
saadar

Anonymous July 3, 2010 at 7:53 PM  

shrddha ji,
ye 'jab ke'kya hota hai? hona to ye chahiye 'jab ki'.
sher likhte samay type ka dhyaan bhii rakha karen.

girish pankaj July 5, 2010 at 1:21 PM  

shrddha, prakash badal ki baat se mai bhi sahamat hoon.

राजेश उत्‍साही July 7, 2010 at 3:15 PM  

शुक्रिया श्रद्धा जी गुलमोहर में आने के लिए। शुक्रिया सालगिरह की बधाई के लिए। इस बहाने मैं भी चला आया यहां। माफ करें आपकी ग़ज़ल छूती है। मगर आख्रिरी शेर को लेकर मेरा मत कुछ अलग है। यह सही है कि आपने केवल संभावना व्‍यक्‍त की है। पर मुझे लगता है खिलौना कहकर न केवल आपने अपने लिए वरन् औरत के प्रति उस भावना को ही बल दिया है जिसे निर्बल करने की जरूरत है। क्‍या ही अच्‍छा हो कि इस शेर को कुछ अलग तरह कहें,मसलन-

तू अगर होती चांदनी तो बहुत बेहतर था
“श्रद्धा” मकां की छत पर टहलती रहती

شہروز July 7, 2010 at 10:27 PM  

और गजलों की तरह एक और खूबसूरत ग़ज़ल. अच्छी पोस्ट.
इस्लाम में कंडोम अवश्य पढ़ें http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/07/blog-post.html

Prem Farukhabadi July 8, 2010 at 12:05 AM  

बहुत सुंदर!!

Anonymous July 8, 2010 at 11:46 PM  

श्रद्धा जी,
काफी थका हुआ था, उर्जा के लिए एक बेहतरीन रचना की तलाश थी| इन उँगलियों ने बस सीधे इसी ब्लॉग का एड्रेस टाइप किया| और शुक्रिया एक बार फिर इतनी बेहतरीन रचना freely online करने के लिए|

-- मयंक मिश्र

kumar zahid July 9, 2010 at 12:03 PM  

काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती

शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती

श्रद्धाजी ! आदाब!
इन तीन शेरों के लिए आपको बारहा सलाम।
ये बेहद संजीदा हैं ओर बेशकीमती भी ...

हैरान परेशान July 11, 2010 at 12:57 PM  

Some people call you-parvin shakir but in my mind you are Toru Dutt of Hindi. Pretty good.

अरुणेश मिश्र July 11, 2010 at 10:20 PM  

तू अगर होती एक खिलौना ....,.....
श्रद्धा जी ! बेहतरीन लिखा । लिखा क्या लिखती हो ।
सहज अभिव्यक्ति ।

देवेन्द्र पाण्डेय July 12, 2010 at 11:26 AM  

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती
...bahut khoob. sunder gazal ke liye badhai.

Pawan Kumar July 14, 2010 at 1:51 AM  

आदरणीय.....
आची ग़ज़ल है.......
मतला तो अच्छा है ही.....आगे के शेर भी खूबसूरत बयानी अपने आप में समेटे हुए हैं.....
काश बदली से कभी धूप निकलती रहती
ज़ीस्त उम्मीद के साए में ही पलती रहती
मतले के अलावा यह शेर भी हमें बहुत पसंद आया...
शांत दिखता है समुन्दर भी लिए गहराई
जब के नदिया की लहर खूब उछलती रहती

संजीव गौतम July 15, 2010 at 10:04 PM  

श्रद्धा जी साखी पर ग़ज़लों को अपना समर्थन देने के लिए बहुत-बहुत आभार. हालांकि अपनों में यह आभार प्रकटीकरण सही तो नहीं लगता लेकिन मन नहींे मानता. आपके ब्लाग पर नई पोस्ट कई दिन से नहीं आयी क्या बात है?

VIVEK VK JAIN July 19, 2010 at 3:52 AM  

ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती

फ़र्ज़ दुनिया के निभाने में गुज़र जाए दिन
और हर रात तेरी याद मचलती रहती

vaise aap ki har rachna hi umda hoti h..lekin ye dil ko chhu gai.

अविनाश वाचस्पति July 26, 2010 at 9:50 PM  

शब्‍दों के प्रति श्रद्धा बढ़ाने में
श्रद्धा की गजलों का बड़ा हाथ है।

आज समाचार पत्रों में सिंगापुर का बड़ा नाम है। आज के हिन्‍दी समाचार पत्र देखें।

Parul kanani July 27, 2010 at 2:33 PM  

amazing.....amazing!

शागिर्द - ए - रेख्ता July 28, 2010 at 6:30 PM  

बहुत सुंदर रचना ... वाह वाह ...!

Sansar Grewal September 22, 2010 at 5:29 PM  

Bahut Hi badhiya likha hai

thanks

maine apne custom msg me laga rakha hai :-

"ज़ख्म कैसे भी हों भर जाते हैं रफ़्ता रफ़्ता,
ज़िंदगी ठोकरें खा- खा के, संभलती रहती |
तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था,
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती ||"

Soory Bina aapki permission ke laga liya

Sansar Grewal

प्रदीप कांत November 21, 2010 at 10:24 PM  

तू अगर होती खिलौना तो बहुत बेहतर था
तुझसे “श्रद्धा” ये तबीयत ही बहलती रहती

अच्छी ग़ज़ल ....

Sara January 18, 2013 at 2:06 PM  

श्रद्धा जी, आप की गजलें मोहती हैं. डी एल ए के ब्लागचिंतन स्तम्भ में शनिवार को आप के ब्लाग पर चर्चा. पेज 11 पर देखें. साइट है ww.dlamedia.com

www.blogvani.com

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