Wednesday, May 26, 2010

आखिर हमारे चाहने वाले कहाँ गए

रोशन थे आँखों में, वो उजाले कहाँ गए
आखिर, हमारे चाहने वाले कहाँ गए

रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

आग़ाज़ अजनबी की तरह, हमने फिर किया
काँटे मगर दिलों से निकाले कहाँ गए

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए

बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए

“श्रद्धा” के ख़्वाब रेत के महलों की तरह थे
तूफ़ान में निशाँ भी संभाले कहाँ गए

80 comments:

राज भाटिय़ा May 26, 2010 at 9:20 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए
बहुत ही सुंदर गजल श्रद्धा जैन जी.
धन्यवाद

शोभना चौरे May 26, 2010 at 9:22 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए
bahoot sach kaha hai
achhi rachna.

Ra May 26, 2010 at 9:27 PM  

वाह ! आपकी ..ग़ज़ल तो लाजवाब ही होती है बहुत शानदार लिखती है आप ,,,,,हर बार की तरह एक कमाल की प्रस्तुति ....जितनी तारीफ़ करो मुझे तो कम ही लगेगी

Ra May 26, 2010 at 9:28 PM  

बहुत समय अंतराल के बाद लिखा है .....?

परमजीत सिहँ बाली May 26, 2010 at 9:40 PM  

bahut sundar rachanaa hai...

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

Anonymous May 26, 2010 at 9:42 PM  

"बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए

“श्रद्धा” के ख़्वाब रेत के महलों की तरह थे
तूफ़ान में निशाँ भी संभाले कहाँ गए"

आभार

सर्वत एम० May 26, 2010 at 9:45 PM  

जब आप जैसे नायाब गजलकार इतनी मुद्दतों बाद पोस्ट लगाएंगे तो हम जैसे शायद इंतज़ार में ही सूख जाएँगे. आप अच्छा क्या, बहुत ही अच्छा लिखती हैं. लेकिन आमिर खान की तरह 'साल में एक ही फिल्म' करने वाला फार्मूला, गजल के साथ अप्लाई मत करें. आप के लेखन के बहुत सारे प्रशंसक हैं, उन्हें इतनी प्रतीक्षा मत कराया करें.

माधव( Madhav) May 26, 2010 at 9:47 PM  

nice

संजय भास्‍कर May 26, 2010 at 9:48 PM  

कमाल की प्रस्तुति ....जितनी तारीफ़ करो मुझे तो कम ही लगेगी

संजय भास्‍कर May 26, 2010 at 9:49 PM  

आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।

डॉ .अनुराग May 26, 2010 at 10:00 PM  

रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए

सुभानाल्लाह....ग़ज़ल ओर आपमें कोई नाजुक सा रिश्ता है

Unknown May 26, 2010 at 10:27 PM  

उम्दा गजल....मानवता को तलाशती और मानवीय भावना की सशक्त अभिव्यक्ति।

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ May 26, 2010 at 10:56 PM  

Mohtarma,
Jawab nahin :)

अमिताभ मीत May 26, 2010 at 10:57 PM  

कमाल है ....

इतने अच्छे शेर सब के सब !! किस किस की तारीफ़ हो !! बेहतरीन ग़ज़ल है .....

संगीता स्वरुप ( गीत ) May 26, 2010 at 11:00 PM  

श्रृद्धा जी ,

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल पेश की है....

रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

वैसे तो सारे ही शेर पसंद आये पर ये कुछ खास लगे..:):)

योगेन्द्र मौदगिल May 26, 2010 at 11:09 PM  

Khooobsurat Gazal......

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' May 26, 2010 at 11:14 PM  

बहुत सुन्दर रचना!

श्यामल सुमन May 26, 2010 at 11:27 PM  

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए

वाह वाह - क्या बात है श्रद्धा जी। सुन्दर - प्रशंसनीय। अपनी ये पंक्तियाँ याद आयीं -

जीवन मेरा सँवरता मुश्किल से खेलकर ही
खुद को सदा सजाना कितना कठिन है यारो

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

कडुवासच May 26, 2010 at 11:30 PM  

...अदभुत !!!

Yogi May 27, 2010 at 12:40 AM  

Amazing...

I am going to share it with my friends... :)

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" May 27, 2010 at 12:56 AM  

लाजवाब ग़ज़ल है ... एक एक शेर जैसे एक एक अनमोल मोती ...
आग़ाज़ अजनबी की तरह, हमने फिर किया
काँटे मगर दिलों से निकाले कहाँ गए

दिल छुं गयी ये पंक्तियाँ !

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) May 27, 2010 at 12:59 AM  

बहुत शानदार और लाजवाब ग़ज़ल....

Udan Tashtari May 27, 2010 at 1:04 AM  

रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए

-ओह! क्या कहने..वाकई भीगी गज़ल कही है आपने. शानदार!!

प्रज्ञा पांडेय May 27, 2010 at 1:48 AM  

बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए
हर शेर ऐसा कि बस वाह निकालता है .. कमाल करती हैं बस और क्या !!

स्वप्निल तिवारी May 27, 2010 at 1:50 AM  

बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए


sare sher achhe ban pade hain .. ye sher khas taur pe pasand aaya...bawastgi wala bhi achha hai .. :)

वीनस केसरी May 27, 2010 at 1:54 AM  

ओह,

आप तो ऐसा गायब हो जाती हैं कि पता ही नहीं चलता

हमने तो सोचा अपने ब्लॉग पर आपकी कुछ गजल चुरा कर लगा दूं और घुमा फिरा कर खबर आप तक पहुचा दूं

शायद आप अवतरित हो जाएँ :)

खैर
आपके चाहने वाले तो आपका इंतज़ार करते ही हैं
एक नई गजल की आस मे ....

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए

बहुत गहरे गहरे शेर निकल रहे हैं

बस क़यामत है .....:)

अब फिर से लंबा इंतज़ार .....:(

Unknown May 27, 2010 at 2:35 AM  

वाह !

कुछ शे'र तो बेमिसाल !

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' May 27, 2010 at 3:17 AM  

रोशन थे आँखों में, वो उजाले कहाँ गए
आखिर, हमारे चाहने वाले कहाँ गए.....
मतला ही इतना खूबसूरत है...कि बस वाह वाह
रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाह का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए.....
हासिले-ग़ज़ल शेर है श्रद्धा जी.

kumar zahid May 27, 2010 at 8:57 AM  

रोशन थे आँखों में, वो उजाले कहाँ गए
आखिर, हमारे चाहने वाले कहाँ गए
रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए
बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए

श्रद्धाजी,
अफसोस कि आपसे अब रूबरू हुआ...
आपने तलाशा ,खंगाला, तराशा, और हर शेर को नगीने की तरह ग़ज़ल की माला में पिरो दिया।
बहुत असरदार और जानदार ग़ज़ल

बधाई!

Pinaakpaani May 27, 2010 at 9:28 AM  

"रोशन थे आँखों में, वो उजाले कहाँ गए
आखिर, हमारे चाहने वाले कहाँ गए" और
"मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए"
क्या बात है !!!,श्रद्धा जी,सचमुच आप की ग़ज़ल दिल में हलचल पैदा करती है.मैं यह बिलकुल नहीं कहूँगा की आप दनादन लिखिए.बस "आँखों में उजाले" यों ही रोशन रहें.

Arun sathi May 27, 2010 at 1:41 PM  

आग़ाज़ अजनबी की तरह, हमने फिर किया
काँटे मगर दिलों से निकाले कहाँ गए

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए


दर्द में सफ़र करना भी अजीब होता है.
पावं को छाले तो नसीब होता है.
साथ जो भी चले वह हमसफ़र है श्रर्धा
आजकल हमसफ़र भी कहां करीब होता है.

Razi Shahab May 27, 2010 at 1:57 PM  

kya baat hai aap to kmalki kavi hain bhai...bahut badhiya gazal ...la jawab

Sanjeet Tripathi May 27, 2010 at 2:47 PM  

sundar.

kafi dino bad aapko padhne ka mauka mila

Unknown May 27, 2010 at 3:32 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

लगता है लोग सेकुलर हो गए हैं।
आपनी रचना बहुत अच्छी है बधाई स्वीकार करें जी

दिगम्बर नासवा May 27, 2010 at 4:03 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए..

आज तो ऐसे लोग बस किससे कहानियों में मिलते हैं ...
बहुत लाजवाब है आपकी ग़ज़ल ... हर शेर चुन चुन कर खिल रहा है ...

अर्चना तिवारी May 27, 2010 at 4:58 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए


बहुत सुंदर गजल

अरुणेश मिश्र May 27, 2010 at 5:37 PM  

समय के अनुसार बदलाव स्वाभाविक । शाश्वत व्यक्त करती रचना ।
चला कोई नही गया । पुराने गये नये आए ।
कट चुके जो हाथ उन हाथो मे पतवारें न देख ।
- दुष्यन्त
रचना ढेर सारी स्मृतियोँ को जीवन्त करती है ।

देवेन्द्र पाण्डेय May 27, 2010 at 8:07 PM  

बेहतरीन गज़ल
इस शेर ने खासा प्रभावित किया..

बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए

..यह शेर काफी कुछ कहता है चाहे जहाँ अर्थ लगाइए. सफलता नहीं मिली इसका मतलब यह है कि प्रयास मन से नहीं किये गये.
..वाह!

Mansoor ali Hashmi May 27, 2010 at 8:39 PM  

हर शेर लाजवाब, खूबसूरत ग़ज़ल.

"माज़ी को मैरे हाल से फिर वो मिला गए,
भीगी ग़ज़ल सुना के हमें तो रुला गए."

--
mansoorali hashmi

ajay saxena May 27, 2010 at 9:04 PM  

उम्दा गजल....

राजकुमार सोनी May 27, 2010 at 9:10 PM  

बहुत ही उम्दा रचना। अच्छा लगा पढ़कर।

Apanatva May 27, 2010 at 11:33 PM  

bahut sunder gazal hai aapkee..........
ek ek sher lajawab hai.....

Lalit Kumar May 28, 2010 at 8:31 AM  

The more I read the more I get convinced that you are on the way to become India's Parveen Shakir! Beautiful ghazal...

Pawan Kumar May 28, 2010 at 2:39 PM  

आदरणीया

.........ग़ज़ल किसको कहते हैं ये कोई आपसे सीखे.......बेहतरीन भावनाओं को बेहतरीन अल्फाजों का लिबास जिस तरह से आप ओधाती हैं, वो आपके बस की ही बात है .......कहर ढा रहे हैं ये शेर......


रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए

मुकेश कुमार सिन्हा May 28, 2010 at 6:54 PM  

shradddha ke khabab ret ke mahal ke tarah the......lekin soch....brick cemented....:)

isliye unke har pankti me ek bhaw hota hai, jo pathak ko padhne ko majboor karta hai.....:)

bahut khub shraddha jee!!

hame apne blog pe aapke comment ki jarurat rahti hai......:)

daanish May 28, 2010 at 7:48 PM  

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है , मेरे पाँव के छाले कहाँ गए

इस खूबसूरत शेर को हासिल-ए-ग़ज़ल शेर कहूंगा
हालांकि हर शेर में कोई न कोई अर्थ झलकता है
लेकिन ये शेर
आपकी कुशलता कोअनुमोदित कर रहा है.. वाह
और
मक्ता भी बहुत असरदार कहा है
मुबारकबाद

कविता रावत May 28, 2010 at 10:58 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए
.....sach mein aise logon ko dhudhna bahut kathin hai...
Yatharthparak gajal bahut achhi lagi...
Haardik shubhkamnayne

Rajeev Bharol May 29, 2010 at 2:21 AM  

हमेशा की तरह एक से बढ़ कर एक शेर.
बहुत सुंदर ग़ज़ल.

pallavi trivedi May 29, 2010 at 3:47 PM  

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए

waah kya baat hai...

pallavi trivedi May 29, 2010 at 3:47 PM  

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए

waah kya baat hai...

इस्मत ज़ैदी May 31, 2010 at 3:37 AM  

श्रद्धा जी ,

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

वाह!सच अब ऐसे कितने लोग बचे हैं लेकिन जितने भी हैं शायद दुनिया उन्हीं लोगों के कारण चल रही है

आग़ाज़ अजनबी की तरह, हमने फिर किया
काँटे मगर दिलों से निकाले कहाँ गए

वाक़ई है तो ये काम बहुत मुश्किल

एक अच्छी ग़ज़ल के लिए शुक्रिया

संगीता स्वरुप ( गीत ) May 31, 2010 at 3:15 PM  

आपकी यह ग़ज़ल चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर मंगलवार १.०६.२०१० के लिए ली गयी है ..
http://charchamanch.blogspot.com/

seema gupta May 31, 2010 at 5:35 PM  

रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए
" behd khubsurat sher, sbse jyada pasand aaya"

regards

Arvind Mishra June 1, 2010 at 8:47 AM  

बहुत सुगठित ,भाव गहन ,सुन्दर !
शुक्रिया !

Ankit June 1, 2010 at 7:17 PM  

श्रद्धा जी,
मतले बहुत बहुत बहुत खूबसूरत है, बस बारहां पढता जा रहा हूँ,
रोशन थे आँखों में, वो उजाले कहाँ गए
आखिर, हमारे चाहने वाले कहाँ गए

इस शेर के लिए क्या कहा जाए, चुनिन्दा लफ़्ज़ों से बात कहने का हुनर है ये,
रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए

वाह, सीधी सच्ची बात,
मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए

एक अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें

Prem Farukhabadi June 2, 2010 at 1:54 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

बहुत सुन्दर रचना!

नीरज गोस्वामी June 2, 2010 at 2:27 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए
श्रधा जी इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये...
नीरज

Himanshu Mohan June 2, 2010 at 5:52 PM  

सुन्दर रचना की बधाई!
रिश्तों पे अफ़वाहों का असर - बहुत ख़ूब!
खुशयां में मात्रा रह गयी टाइप होने से - खुशियाँ कर लीजिए। हाँ अगर उर्दू से ट्रांसलिटरेट किया जाए तो भी ये अपने आप हुआ हो सकता है।
ग़ज़ल बहुत अच्छी है, क्योंकि पढ़ते ही पढ़ते नज़र करने के लिए शे'र के फूल तक पहुँच गया (और अपनी तबीयत के ख़िलाफ़ - रूमानी होने की कोशिश - वो भी उन्नीसवीं सदी की जैसी)- सो पेश हैं-
उनका सँभालना वो दुपट्टे को बार-बार
हमसे निगाहो-दिल भी सँभाले कहाँ गए

कुछ उनकी तबीयत भी न निकली वफ़ाशिआर
कुछ ज़्यादा दिन ये वहम भी पाले कहाँ गए

ब-हर-हाल, ग़ज़ल बहुत अच्छी है, बधाई स्वीकारें।

अमिताभ त्रिपाठी ’ अमित’ June 4, 2010 at 2:08 AM  

श्रद्धा जी, फिर एक ख़ूब सूरत ग़ज़ल आपके द्वारा। बधाई!
रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

आग़ाज़ अजनबी की तरह, हमने फिर किया
काँटे मगर दिलों से निकाले कहाँ गए


ये शेर खास लगे
सादर
अमित

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार June 4, 2010 at 10:24 PM  

आदरणीया श्रद्धाजी ,
आपकी ग़ज़ल पढ़ने का अवसर अपने आप में किसी उपहार से कम नहीं ।
ललितजी की बात आगे बढ़ाऊं तो यूं भी कह सकते हैं कि श्रद्धेया परवीन शाक़िर सशरीर मौज़ूद होती अभी तो उन्हें पाकिस्तान की श्रद्धा जैन कहा जा सकता था ।

प्रस्तुत ग़ज़ल पर सर्वश्री सर्वतजी ,नीरजजी ,मुफ़्लिसजी ,
आतिशजी , अमिताभजी , योगेन्द्रजी , और सबसे बढ़ कर मंसूर अली साहब जैसी हस्तियों सहित शास्त्रीजी , सीमाजी , संगीताजी , आदि ने पहले ही बहुत कुछ कह दिया है …
आपके ख़ज़ाने के ला'लो-ज़वाहिर बांटते रहिएगा बराबर ।
महीने में कम अज़ कम दो-तीन बार तो…!!


- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

ललितमोहन त्रिवेदी June 4, 2010 at 11:14 PM  

रिश्तों पे देख, पड़ गया अफवाहों का असर
वाबस्तगी के सारे हवाले कहाँ गए
मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए
“श्रद्धा” के ख़्वाब रेत के महलों की तरह थे
तूफ़ान में निशाँ भी संभाले कहाँ गए

कितना डूबकर लिखतीं हैं आप ,हर शे'र को पढने के बाद ठहर जाना पड़ता है ! एहसास को इतनी शिद्दत से समझना और उसे वैसा ही पाठक तक पहुंचा देना बहुत कठिन होता है परन्तु वह आपके लिए उतना ही सहज है ! मैं आपकी हर रचना पढ़ लेता हूँ , कभी कभी टिप्पणी करने से चूक जाता हूँ !स्वभावगत आलसी हूँ पर मित्र निभा ही लेते हैं यह सौभाग्य है मेरा !

संत शर्मा June 6, 2010 at 1:34 AM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए

“श्रद्धा” के ख़्वाब रेत के महलों की तरह थे
तूफ़ान में निशाँ भी संभाले कहाँ गए

Waah waah, bahut khub.

vicharmanch June 7, 2010 at 5:40 PM  

बहुत सुदर रचना .
बधाई स्वीकार करें

vicharmanch June 7, 2010 at 5:40 PM  

बहुत सुदर रचना .
बधाई स्वीकार करें

شہروز June 8, 2010 at 4:31 PM  

behtar से aur tareen!! dinon बाद padhna sukhad laga!

inteha June 9, 2010 at 7:25 AM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए
kya jazbaat hai , bahut badhiiya
gazal achhi lagii....

Unknown June 9, 2010 at 12:25 PM  

Wah gigi,

too beautiful maja aa gaya...

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए


बहुत ही सुंदर गजल.......

अविनाश वाचस्पति June 10, 2010 at 4:10 PM  

आप ही तलाश रही हैं
और वे आपके पास ही हैं गए।

Dr.Ajmal Khan June 11, 2010 at 1:22 PM  

khoobsoorat gazal , lajawaab, lajawaab.........

सदा June 11, 2010 at 5:42 PM  

बस शोर हो रहा था कि मोती तलाशिए
नदिया, समुद्र, झील, खंगाले कहाँ गए ।

हर शब्‍द बहुत कुछ कहता हुआ, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' June 13, 2010 at 12:16 PM  

"मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए "
अच्छी प्रस्तुति........बधाई.....

निर्मला कपिला June 17, 2010 at 12:28 PM  

श्रद्धा जी बार बार पढने को मन चाह रहा है बस दो शब्द कहूँगी लाजवाब अतिउत्तम बधाई

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) June 18, 2010 at 4:29 AM  

मुश्किल सफ़र ने इतना किया हौसला बुलंद
हैरत है मेरे पाँव के छाले कहाँ गए ...

बहुत खुबसूरत गज़ल...
यह शेर मुझे बहुत पसंद आया ||

Akhilesh pal blog June 18, 2010 at 5:22 PM  

bahoot sundar rachana hi srddha ji mere blog par aane aur pratikriya dene kke liye danyvaad

Vinod Sharma June 24, 2010 at 3:09 PM  

“श्रद्धा” के ख़्वाब रेत के महलों की तरह थे
तूफ़ान में निशाँ भी संभाले कहाँ गए
श्रद्धाजी, बात भाव-संप्रेषण की हो या शब्द-चयन की, विषयवस्तु की हो या उसके प्रस्तुतिकरण की, हर विधा में आप अनुपम हैं। एक मेहरबानी करें, अगली गजल जल्दी पोस्ट करें। धन्यवाद।

स्वाति June 24, 2010 at 5:40 PM  

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

सुंदर गजल..

महेंद्र मिश्र June 28, 2010 at 6:20 PM  

वाह!

girish pankaj July 5, 2010 at 1:22 PM  

vaah, ye ghazal hai bilkulshrddha kee ghazal jaisi. badhai...

Mayank Awasthi August 30, 2010 at 8:55 PM  

jab taq game jahan ke hawaale naheen huye
ham zindigee ke janane wale nahee^ huye --Shikeb Jalalee
In aabalon se paon ke ghabaraa gayaa thaa main
jee khush hua hai raah ko purkhaar dekh kar -Ghalib
Your poetry reminds me of great poetry -Great !shraddha!

Anonymous January 24, 2011 at 10:58 AM  

महोतरमा श्रद्धाजी
सादर प्रणाम
बहुत अच्छा कहती हैं आप !

गम दूसरों के बाँट के, खुशयां बिखेर दें
थे ऐसे कितने लोग निराले, कहाँ गए

मेरा शेर देखें :-
दुख: सभी के बांट लूं ,यह बात मुम्मकिन ही नहीं
देखना ये है कि किसके ,काम कितना आ सका

पुरूषोत्तम अब्बी "आज़र"

www.blogvani.com

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