Sunday, January 17, 2010

हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते

हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुम्हें अक्सर नहीं आते

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते

बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते.

पैकर – आकृति

71 comments:

Arun sathi January 17, 2010 at 12:03 PM  

क्या बात हैं, लाजबाब।
मिल जाए नया जख्म तो फिर कोई गजल हो... वाह वह।

संत शर्मा January 17, 2010 at 12:12 PM  

हर एक शेर लाजबाब, खास करके :

नज़दीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते

बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते |

वाह वाह ..

निर्मला कपिला January 17, 2010 at 12:12 PM  

श्रद्धा जी अगर मैं किसी एक शेर की तारीफ करूँ तो किस की सभी शेर लाजवाब हैं कमाल की इस गज़ल के लिये बधाई

सर्वत एम० January 17, 2010 at 12:13 PM  

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

बहुत ही खूबसूरत शेर.
आपने शायरी, शायर के मूड, परिभाषा सभी कुछ देकर, रचना के प्रति अपने धर्म का निर्वहन किया है.
आपकी गजलें अब मुझे हैरान करने लगी हैं.
लगता है गजलें छोडकर किसी अन्य विद्या की ओर जाना पड़ेगा.

राजीव तनेजा January 17, 2010 at 12:35 PM  

हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते

बहुत बढ़िया... गहरी बातों को यूँ शब्दों में ढालना तो कोई आपसे सीखे

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' January 17, 2010 at 12:41 PM  

श्रद्दा जी आदाब
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
सिर्फ तारीफ के लिये नहीं, वाकई मतला बहुत खूबसूरत है
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
ऐसी ही है ये दुनिया
बेहतरीन ग़ज़ल, बधाई
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून January 17, 2010 at 1:21 PM  

:)

इस्मत ज़ैदी January 17, 2010 at 1:24 PM  

shraddha ji ,shubh jeevan ,
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते

behad khoobsoorat alfaz ke paikar hain phir ye shikayat kaisi?khuda kare apko kabhi koi zakhm na mile lekin aap alfaz ke paikar yoonhi tarashti rahen .

Lalit Kumar January 17, 2010 at 2:21 PM  

बहुत ही खूबसूरत रचना। सभी शेर सुन्दर हैं। मुझे यह शेर ख़ास तौर पर पसन्द आया:

नज़दीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

समय चक्र January 17, 2010 at 2:43 PM  

बहुत सुन्दर रचना . जब आपकी रचनाये अधाता हूँ तो बहुत प्रसन्नता होती है . आभार

Razi Shahab January 17, 2010 at 3:00 PM  

बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते |
waahh....kya baat hai...lajawab andazebayaan

सुशील छौक्कर January 17, 2010 at 3:03 PM  

श्रद्धा जी आज बहुत दिनों के बाद आपके ब्लोग पर आना हुआ। यहाँ आकर शब्दों की वही महक, महका रही है। हर शेर गहरी बातें कहता हुआ।
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

ये वाला कुछ ज्यादा ही पसंद आया।

शारदा अरोरा January 17, 2010 at 3:57 PM  

बढ़िया...खूबसूरत शेर
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
bahut pasand aaye

Manish Kumar January 17, 2010 at 4:16 PM  

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

अच्छा लगा ये शेर..

दिगम्बर नासवा January 17, 2010 at 4:18 PM  

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते ...

बहुत ही लाजवाब .......... क्या कहने हैं .... इतने खूबसोरात शेरों पर तो बस वह वाह ... सुभान अल्ला ही मुँह से निकलता है ....

"अर्श" January 17, 2010 at 4:23 PM  

वेसे तो हर शे'र काबिले तारीफ है मगर यह शे'र ने तो मेरी हवा गम कर के रख दी है
कुछ और कहने के काबिल नहीं हूँ मैं .... क्या खूब शे'र कहे है आपने
सच .. यही है ...
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

और फिर वो छज्जे पर कबूतर वाला शे'र ... मजा आगया ...


अर्श

राज भाटिय़ा January 17, 2010 at 4:34 PM  

हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
बहुत सुंदर गजल

Yogi January 17, 2010 at 4:35 PM  

har sher lajawaab hai..

Too good, keep writing...

Unknown January 17, 2010 at 6:10 PM  

नज़दीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

bahut sundar gazal hai

Dr. Amar Jyoti January 17, 2010 at 8:15 PM  

'हमको भी समझ……'
'नज़दीक ……………………'
'जिस दिन से……………'
'मिल जाए नया ज़ख़्म…'
सभी एक से बढ़ कर एक।
बधाई।

شہروز January 17, 2010 at 9:00 PM  

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

यूँ हर शेर कमाल है!
लेकिन यह मुझे ज़्यादा मौजूं लगा

पैकर को सरापा नहीं कह सकते .सरापा यानी सम्पूर्ण, मुकम्मल.
पैकर को आप रूप/आकृति कह सकती हैं, जो सही भी है.

गुस्ताखी मुआफ हो!

شہروز January 17, 2010 at 9:02 PM  

नया ले आउट अच्चा लगा! लिंक भी खूब दिया है, आभार!

सुरेन्द्र "मुल्हिद" January 17, 2010 at 9:59 PM  

aafreen...aafreen...aafreen....

डॉ. मनोज मिश्र January 17, 2010 at 10:25 PM  

हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
इसके अलावा भी हर लाइन बेहतरीन और उम्दा.

NEER January 17, 2010 at 10:46 PM  

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते


bhut khub shardha ji............ bhut achi kavita as alwys......

वन्दना अवस्थी दुबे January 17, 2010 at 10:55 PM  

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
क्या बात है श्रद्धा जी. बहुत ही सुन्दर.

Yogesh Verma Swapn January 17, 2010 at 11:24 PM  

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते

soch raha hun baki do kyun chhod diye , wo bhi itne hi mahatwapurn hain, lajawaab , behatareen, anoothi, anupam aur jaane kya kya..........................

Unknown January 17, 2010 at 11:34 PM  

बहुत दिनों बाद एक बहुत ही उम्दा ग़ज़ल पढ़ी...........

वाह !
वाह !

सभी शे'र लामिसाल............

कबूतर का तो जवाब नहीं................

ग़ज़ल मुबारक !

अजय कुमार झा January 18, 2010 at 1:49 AM  

अरे वाह , इतनी उम्दा ..! आपसे तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा , चलिए आगे से सीखेंगे
अजय कुमार झा

गौतम राजऋषि January 18, 2010 at 2:25 AM  

लीजिये एक ही रात में श्रद्धा जैन की दो-दो बेमिसाल ग़ज़लों का जादू...कैसे संभलेगा?

एक और जबरदस्त मतला लिये हुए ...वाह!
किंतु दूसरे शेर के अंदाजे-बयां ने मुग्ध कर दिया..

चौथा शेर जैसे सारे शायरों की बात कह रहा हो।

ज्योति सिंह January 18, 2010 at 3:36 AM  

उलट दें आज बिसातें सभी सियासत की
मफादे मुल्क की इल्मे नेहाँ की बात करें
bahut hi shaandaar .

कंचन सिंह चौहान January 18, 2010 at 3:37 AM  

अच्छी गज़लों का दिन है शायद आज....! पहले अर्श और अब आप....!! किस शेर को बेहतर बता कर दूसरे को कमतर कह दूँ.... हर शेर लाज़वाब....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' January 18, 2010 at 9:25 AM  

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

बढ़िया भाव!
सुन्दर गजल!
बधाई!

Satish Saxena January 18, 2010 at 12:42 PM  

"जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते"
क्या बात कही है श्रद्धा जी !

सदा January 18, 2010 at 1:19 PM  

मेरे ब्‍लाग पर आने के लिये बहुत-बहुत आभार, मुझे भीगी गजल में आने का मौका मिला,

हर शब्‍द लाजवाब

नजदीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते ।
बधाई के साथ शुभकामनायें ।

नीरज गोस्वामी January 18, 2010 at 1:54 PM  

श्रधा जी पहली बार ऐसा हुआ है मैं कोई एक आध शेर आपकी ग़ज़ल से चुन कर अलग नहीं कर पा रहा हूँ...सारे के सारे शेर एक से बढ़ कर एक असरदार खूबसूरत और मुकम्मल हैं...ये ग़ज़ल लेखन में बहुत मुश्किल होता है...बल्कि कहूँ ऐसी ग़ज़ल करिश्माई होती है...आपने ये करिश्मा इस ग़ज़ल में कर दिखाया है...मेरी दिली दाद कबूल कीजिये...देर से आया हूँ लेकिन ये नुक्सान मुझे ही हुआ वर्ना दो दिन पहले इतना खुश हो लेता...
लिखती रहें...
नीरज

डॉ .अनुराग January 18, 2010 at 4:49 PM  

बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते.

i like this one....

Dileepraaj Nagpal January 18, 2010 at 5:04 PM  

Aapki Gazhalen Dil Ko Chooti Hain...

निर्झर'नीर January 18, 2010 at 5:06 PM  

वाह श्रद्दा जी सभी शेर लाजबाब।
गज़ल के लिये बधाई

रचना दीक्षित January 18, 2010 at 5:08 PM  

हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना सफल हो गया हर इक शेर आपने आप में बे मिसाल
आभार

सुनीता शानू January 18, 2010 at 8:48 PM  

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
नज़दीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
श्रध्दा जी ये दोनो शेर बहुत ही अच्छे लगे। बहुत खूबसूरत ग़ज़ल शुक्रिया।

प्रकाश पाखी January 19, 2010 at 4:10 AM  

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते

बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते.
KAI BAAR SOCHNE LAG JAATAA HOON KI ITNE SUNDAR ASHAAR AAPKE JEHN ME KAISE AATE HONGE?
AAPKI GAJLE BAHUT GAHREE AUR PRABHVIT KAR DENE VAALI HAI..BADHAAI!

कडुवासच January 19, 2010 at 9:55 AM  

... वाह-वाह ...वाह-वाह ... प्रभावशाली गजल !!!

Ankit January 19, 2010 at 4:56 PM  

श्रद्धा जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है.
मतला क्या खूब कहा है,
इस शेर ने तो ग़ज़ब ढा दिया, "नज़दीक बहुत गर रहे.........." मज़ा आ गया बहुत बहुत बहुत अच्छा शेर है.
"जिस दिन मैं ले आई.........'', "मिल जाये नया..........." और "बिस्तर पे कभी......" सारे ही शेर लाजवाब है.

girish pankaj January 19, 2010 at 11:24 PM  

achchhe sher kahane vaalee ek pratibhshaalee shayara se parichay hua. badhai.isee shrdhaa -samarpan ke saath likhatee rahe. shubhkamnaye. man me ek aur sher umad raha hai-
shrddha rahegee saath to mil jayegee duniya/isake bina kabhi bhi eeshavar nahee aate.

manu January 19, 2010 at 11:35 PM  

पूरी ग़ज़ल नायाब है..
लेकिन दूसरा और चौथा शेर लाजवाब....

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते


ज़ख्म अब तक तो कई वक़्त ने भर डाले हैं..
था कोई वक़्त के हर बात ग़ज़ल थी अपनी...

हरकीरत ' हीर' January 20, 2010 at 2:07 PM  

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

Gazab ......!!

रंजू भाटिया January 20, 2010 at 8:55 PM  

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

वाह श्रद्धा जी के लफ़्ज़ों का जादू बाँध लेता है ..बहुत बहुत दिनी बाद तुम्हारा लिखा पढ़ा .सही में दिल खुश हो गया इसको पढ़ कर ..

Dr. Tripat Mehta January 20, 2010 at 10:43 PM  

bahut hi khoob...wah wah wah..
3 cheers to u..
aisi hi likhti rahiye :)

Peeyush January 21, 2010 at 1:33 PM  

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते

पर कुछ आदतों का लग जाना अच्छा होता है.. :)
आप मेरे WWW.NaiNaveliMadhushala.com ब्लॉग पर हैं.

Mohinder56 January 21, 2010 at 3:32 PM  

हर लफ़्ज लाजबाब है...

लिखते रहिये

रविकांत पाण्डेय January 21, 2010 at 10:28 PM  

लाजवाब!!

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

गजब की कशिश है इस शेर में। बहुत सुंदर।

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते

आह! कितना दर्द भरा सच!

अमिताभ त्रिपाठी ’ अमित’ January 22, 2010 at 1:22 AM  

श्रद्धा जी,
आपकी ग़ज़लों से जलन होने लगी है। कितना अच्छा लिख रही हैं आप। बाप रे।
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते

लाजवाब
सादर

Anonymous January 22, 2010 at 9:28 PM  

दिल के तारों को झकझोरती - एक-एक शब्द और उनसे सजे शेर आज के वक़्त में झूठ और फरेब में लिप्त हमारी सोच और स्वाभाव को बयां करता हुआ और झूठे-सच को आइना दिखाकर शर्मशार करता हुआ आपका ये जबाब
"जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते"
नायाब प्रस्तुति - आपकी लेखनी को सादर नमन.

"चन्द शेरों में "श्रद्धा" आपने जो बात कह डाली
हम तो कई पन्नों में भी जो कह नहीं पाते"
17.1.2010

Satish Saxena January 23, 2010 at 12:58 AM  

"नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते"

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी January 23, 2010 at 11:54 AM  

क्या बात है श्रद्धा! बहुत अच्छे! एक भी शेर ऐसा नहीं जो कम है। कहाँ से ख़याल ले आती हैं ऐसे ऐसे। फिर एक बार- वाह!

Mukesh Vyas January 23, 2010 at 1:58 PM  

'ghazal' ke school ki principal ka sa wazan hai aap ke sheron mein......

sharaab, shabaab ki sarahadon se baahar ek umda sher-o-sukhan ka aanand mila hai aapake sheron mein...

shaaaaaaaaaaaaaandaaaaaaaar......

god bless you

संजय भास्‍कर January 23, 2010 at 10:18 PM  

क्या टिप्पणी दूं . हमेशा की तरह शानदार रचनायें. मार्मिक संवेदनशील.

Irshad January 23, 2010 at 10:29 PM  

subhan allah

Tulsibhai January 23, 2010 at 11:45 PM  

" bahut hi badhiya ek se badhaker ek lajawab sher "


----- eksacchai { AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

Tulsibhai January 23, 2010 at 11:49 PM  

" bahut hi badhiya ek se badhaker ek lajawab sher "


----- eksacchai { AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

अनूप भार्गव January 25, 2010 at 10:42 AM  

>मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
>अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते

बहुत खूब श्रद्धा जी ...

खोरेन्द्र January 27, 2010 at 1:24 AM  

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

bahut khub ......

लोकेन्द्र विक्रम सिंह January 31, 2010 at 1:25 AM  

वाकई में अजीब ही शख्श था वो जो इतनी ख़ूबसूरत गजल लिख गया.....

Akhil February 6, 2010 at 4:51 PM  

"जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते"

bahut khoob shraddha ji...poori gazal kabile daad hai..

Archana Gangwar February 14, 2010 at 1:27 AM  

नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुम्हें अक्सर नहीं आते

kya baat hai shraddha....bahut din baad tumko para.....aur para tu ek ajab sa sukoon aaya.....

pawan February 20, 2010 at 12:05 PM  

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति ....

पढकर मन प्रसन्न हो गया ॥

नईम March 27, 2010 at 2:21 PM  

बहूत खूब अच्छी गजल पढने को मिली

नईम March 27, 2010 at 2:25 PM  

बहूत खूब अच्छी गजल पढने को मिली

प्रदीप कांत April 23, 2010 at 10:37 PM  

जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते

लाजवाब

Murad Jaipuri September 4, 2010 at 4:12 PM  

Waah shrddha jee!bahut khoob!kya sher kaha hai aapne-'Mil jaye naya zakhm to phir koi ghazal ho,Ab zahn mein alfaaz ke paikar nahin aate'.zindagi bhar yaad rakhne laayaq hai.maine facebook mein yeh sher padha to ek bechaini si mehsoos karne laga kyonki meri aadat hai achchhi cheez ki taareef kiye baghair nahin rah sakta.ab sukoon-sa hai.

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