हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुम्हें अक्सर नहीं आते
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते.
पैकर – आकृति
71 comments:
क्या बात हैं, लाजबाब।
मिल जाए नया जख्म तो फिर कोई गजल हो... वाह वह।
हर एक शेर लाजबाब, खास करके :
नज़दीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते |
वाह वाह ..
श्रद्धा जी अगर मैं किसी एक शेर की तारीफ करूँ तो किस की सभी शेर लाजवाब हैं कमाल की इस गज़ल के लिये बधाई
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
बहुत ही खूबसूरत शेर.
आपने शायरी, शायर के मूड, परिभाषा सभी कुछ देकर, रचना के प्रति अपने धर्म का निर्वहन किया है.
आपकी गजलें अब मुझे हैरान करने लगी हैं.
लगता है गजलें छोडकर किसी अन्य विद्या की ओर जाना पड़ेगा.
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
बहुत बढ़िया... गहरी बातों को यूँ शब्दों में ढालना तो कोई आपसे सीखे
श्रद्दा जी आदाब
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
सिर्फ तारीफ के लिये नहीं, वाकई मतला बहुत खूबसूरत है
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
ऐसी ही है ये दुनिया
बेहतरीन ग़ज़ल, बधाई
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
:)
shraddha ji ,shubh jeevan ,
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
behad khoobsoorat alfaz ke paikar hain phir ye shikayat kaisi?khuda kare apko kabhi koi zakhm na mile lekin aap alfaz ke paikar yoonhi tarashti rahen .
बहुत ही खूबसूरत रचना। सभी शेर सुन्दर हैं। मुझे यह शेर ख़ास तौर पर पसन्द आया:
नज़दीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
बहुत सुन्दर रचना . जब आपकी रचनाये अधाता हूँ तो बहुत प्रसन्नता होती है . आभार
बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते |
waahh....kya baat hai...lajawab andazebayaan
श्रद्धा जी आज बहुत दिनों के बाद आपके ब्लोग पर आना हुआ। यहाँ आकर शब्दों की वही महक, महका रही है। हर शेर गहरी बातें कहता हुआ।
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
ये वाला कुछ ज्यादा ही पसंद आया।
बढ़िया...खूबसूरत शेर
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
bahut pasand aaye
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
अच्छा लगा ये शेर..
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते ...
बहुत ही लाजवाब .......... क्या कहने हैं .... इतने खूबसोरात शेरों पर तो बस वह वाह ... सुभान अल्ला ही मुँह से निकलता है ....
वेसे तो हर शे'र काबिले तारीफ है मगर यह शे'र ने तो मेरी हवा गम कर के रख दी है
कुछ और कहने के काबिल नहीं हूँ मैं .... क्या खूब शे'र कहे है आपने
सच .. यही है ...
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
और फिर वो छज्जे पर कबूतर वाला शे'र ... मजा आगया ...
अर्श
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
बहुत सुंदर गजल
har sher lajawaab hai..
Too good, keep writing...
नज़दीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
bahut sundar gazal hai
'हमको भी समझ……'
'नज़दीक ……………………'
'जिस दिन से……………'
'मिल जाए नया ज़ख़्म…'
सभी एक से बढ़ कर एक।
बधाई।
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
यूँ हर शेर कमाल है!
लेकिन यह मुझे ज़्यादा मौजूं लगा
पैकर को सरापा नहीं कह सकते .सरापा यानी सम्पूर्ण, मुकम्मल.
पैकर को आप रूप/आकृति कह सकती हैं, जो सही भी है.
गुस्ताखी मुआफ हो!
नया ले आउट अच्चा लगा! लिंक भी खूब दिया है, आभार!
aafreen...aafreen...aafreen....
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
इसके अलावा भी हर लाइन बेहतरीन और उम्दा.
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
bhut khub shardha ji............ bhut achi kavita as alwys......
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
क्या बात है श्रद्धा जी. बहुत ही सुन्दर.
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
soch raha hun baki do kyun chhod diye , wo bhi itne hi mahatwapurn hain, lajawaab , behatareen, anoothi, anupam aur jaane kya kya..........................
बहुत दिनों बाद एक बहुत ही उम्दा ग़ज़ल पढ़ी...........
वाह !
वाह !
सभी शे'र लामिसाल............
कबूतर का तो जवाब नहीं................
ग़ज़ल मुबारक !
अरे वाह , इतनी उम्दा ..! आपसे तो बहुत कुछ सीखने को मिलेगा , चलिए आगे से सीखेंगे
अजय कुमार झा
लीजिये एक ही रात में श्रद्धा जैन की दो-दो बेमिसाल ग़ज़लों का जादू...कैसे संभलेगा?
एक और जबरदस्त मतला लिये हुए ...वाह!
किंतु दूसरे शेर के अंदाजे-बयां ने मुग्ध कर दिया..
चौथा शेर जैसे सारे शायरों की बात कह रहा हो।
उलट दें आज बिसातें सभी सियासत की
मफादे मुल्क की इल्मे नेहाँ की बात करें
bahut hi shaandaar .
अच्छी गज़लों का दिन है शायद आज....! पहले अर्श और अब आप....!! किस शेर को बेहतर बता कर दूसरे को कमतर कह दूँ.... हर शेर लाज़वाब....
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
बढ़िया भाव!
सुन्दर गजल!
बधाई!
"जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते"
क्या बात कही है श्रद्धा जी !
मेरे ब्लाग पर आने के लिये बहुत-बहुत आभार, मुझे भीगी गजल में आने का मौका मिला,
हर शब्द लाजवाब
नजदीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते ।
बधाई के साथ शुभकामनायें ।
श्रधा जी पहली बार ऐसा हुआ है मैं कोई एक आध शेर आपकी ग़ज़ल से चुन कर अलग नहीं कर पा रहा हूँ...सारे के सारे शेर एक से बढ़ कर एक असरदार खूबसूरत और मुकम्मल हैं...ये ग़ज़ल लेखन में बहुत मुश्किल होता है...बल्कि कहूँ ऐसी ग़ज़ल करिश्माई होती है...आपने ये करिश्मा इस ग़ज़ल में कर दिखाया है...मेरी दिली दाद कबूल कीजिये...देर से आया हूँ लेकिन ये नुक्सान मुझे ही हुआ वर्ना दो दिन पहले इतना खुश हो लेता...
लिखती रहें...
नीरज
बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते.
i like this one....
Aapki Gazhalen Dil Ko Chooti Hain...
वाह श्रद्दा जी सभी शेर लाजबाब।
गज़ल के लिये बधाई
हमको भी समझ फूल या पत्थर नहीं आते
दुश्मन की तरह दोस्त अगर घर नहीं आते
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना सफल हो गया हर इक शेर आपने आप में बे मिसाल
आभार
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
नज़दीक बहुत तुम रहे, बन जाओ न आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
श्रध्दा जी ये दोनो शेर बहुत ही अच्छे लगे। बहुत खूबसूरत ग़ज़ल शुक्रिया।
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
बिस्तर पे कभी करवटें बदलें वो भी 'श्रद्धा'
आँखों में ये नायाब से मंजर नहीं आते.
KAI BAAR SOCHNE LAG JAATAA HOON KI ITNE SUNDAR ASHAAR AAPKE JEHN ME KAISE AATE HONGE?
AAPKI GAJLE BAHUT GAHREE AUR PRABHVIT KAR DENE VAALI HAI..BADHAAI!
... वाह-वाह ...वाह-वाह ... प्रभावशाली गजल !!!
श्रद्धा जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है.
मतला क्या खूब कहा है,
इस शेर ने तो ग़ज़ब ढा दिया, "नज़दीक बहुत गर रहे.........." मज़ा आ गया बहुत बहुत बहुत अच्छा शेर है.
"जिस दिन मैं ले आई.........'', "मिल जाये नया..........." और "बिस्तर पे कभी......" सारे ही शेर लाजवाब है.
achchhe sher kahane vaalee ek pratibhshaalee shayara se parichay hua. badhai.isee shrdhaa -samarpan ke saath likhatee rahe. shubhkamnaye. man me ek aur sher umad raha hai-
shrddha rahegee saath to mil jayegee duniya/isake bina kabhi bhi eeshavar nahee aate.
पूरी ग़ज़ल नायाब है..
लेकिन दूसरा और चौथा शेर लाजवाब....
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
ज़ख्म अब तक तो कई वक़्त ने भर डाले हैं..
था कोई वक़्त के हर बात ग़ज़ल थी अपनी...
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
Gazab ......!!
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
वाह श्रद्धा जी के लफ़्ज़ों का जादू बाँध लेता है ..बहुत बहुत दिनी बाद तुम्हारा लिखा पढ़ा .सही में दिल खुश हो गया इसको पढ़ कर ..
bahut hi khoob...wah wah wah..
3 cheers to u..
aisi hi likhti rahiye :)
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते
पर कुछ आदतों का लग जाना अच्छा होता है.. :)
आप मेरे WWW.NaiNaveliMadhushala.com ब्लॉग पर हैं.
हर लफ़्ज लाजबाब है...
लिखते रहिये
लाजवाब!!
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
गजब की कशिश है इस शेर में। बहुत सुंदर।
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
आह! कितना दर्द भरा सच!
श्रद्धा जी,
आपकी ग़ज़लों से जलन होने लगी है। कितना अच्छा लिख रही हैं आप। बाप रे।
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
लाजवाब
सादर
दिल के तारों को झकझोरती - एक-एक शब्द और उनसे सजे शेर आज के वक़्त में झूठ और फरेब में लिप्त हमारी सोच और स्वाभाव को बयां करता हुआ और झूठे-सच को आइना दिखाकर शर्मशार करता हुआ आपका ये जबाब
"जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते"
नायाब प्रस्तुति - आपकी लेखनी को सादर नमन.
"चन्द शेरों में "श्रद्धा" आपने जो बात कह डाली
हम तो कई पन्नों में भी जो कह नहीं पाते"
17.1.2010
"नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुझे अक्सर नहीं आते"
क्या बात है श्रद्धा! बहुत अच्छे! एक भी शेर ऐसा नहीं जो कम है। कहाँ से ख़याल ले आती हैं ऐसे ऐसे। फिर एक बार- वाह!
'ghazal' ke school ki principal ka sa wazan hai aap ke sheron mein......
sharaab, shabaab ki sarahadon se baahar ek umda sher-o-sukhan ka aanand mila hai aapake sheron mein...
shaaaaaaaaaaaaaandaaaaaaaar......
god bless you
क्या टिप्पणी दूं . हमेशा की तरह शानदार रचनायें. मार्मिक संवेदनशील.
subhan allah
" bahut hi badhiya ek se badhaker ek lajawab sher "
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
" bahut hi badhiya ek se badhaker ek lajawab sher "
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
>मिल जाए नया ज़ख़्म तो फिर कोई ग़ज़ल हो
>अब ज़हन में अल्फ़ाज़ के पैकर नहीं आते
बहुत खूब श्रद्धा जी ...
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
bahut khub ......
वाकई में अजीब ही शख्श था वो जो इतनी ख़ूबसूरत गजल लिख गया.....
"जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते"
bahut khoob shraddha ji...poori gazal kabile daad hai..
नज़दीक बहुत गर रहे, बन जाओगे आदत
ये सोच के, मिलने तुम्हें अक्सर नहीं आते
kya baat hai shraddha....bahut din baad tumko para.....aur para tu ek ajab sa sukoon aaya.....
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति ....
पढकर मन प्रसन्न हो गया ॥
बहूत खूब अच्छी गजल पढने को मिली
बहूत खूब अच्छी गजल पढने को मिली
जिस दिन से मैं ले आई हूँ बाज़ार से पिंजरा
उस रोज से, छज्जे पे कबूतर नहीं आते
लाजवाब
Waah shrddha jee!bahut khoob!kya sher kaha hai aapne-'Mil jaye naya zakhm to phir koi ghazal ho,Ab zahn mein alfaaz ke paikar nahin aate'.zindagi bhar yaad rakhne laayaq hai.maine facebook mein yeh sher padha to ek bechaini si mehsoos karne laga kyonki meri aadat hai achchhi cheez ki taareef kiye baghair nahin rah sakta.ab sukoon-sa hai.
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