कोई पत्थर तो नहीं हूँ , कि ख़ुदा हो जाऊँ
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
धूप में साया, सफ़र में हूँ कबा फूलों की
मैं अमावस में सितारों की जिया हो जाऊँ
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
रात भर पहलूनशीं हों वो कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
फ़ना = तबाह
कबा = लिबास
जिया = चमक, रोशनी
सबा = ठंडी हवा
71 comments:
नव वर्ष की शुभकामना के साथ अपनी बात रखने की कोशिश करता हूँ--
इतनी भरपूर, शानदार, जानदार गजल!! श्रद्धा जी यकीन कीजिए मारे जलन के बुरा हाल हो गया. अब लगता है आज़माइश के दिन आ गए. इसके बावजूद मैं खुशी खुशी आपको इस गजल के लिए मुबारकबाद पेश करता हूँ. साथ ही अनुरोध है कि थोडा हल्का लिखा करें ताकि इस नाचीज़ की थोड़ी बहुत आबरू बरकरार रहे.
वाह दीदी, बहुत ही बढिया लिखा है। नये शब्दो को बताने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।
gazab ! har ek baat bahut khuubsurat hai shraddha ...
वहुत अच्छी ग़ज़ल।
बहुत सुंदर.
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
बहुत ही बढिया...
रात भर पहलूनशीं हों वो कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ!
क्या बात है श्रद्धा . हम तो यूँ भी आपकी कलम के लिए दीवानगी रखते हैं .. बहुत ख़ूबसूरत लिखा आपने .. बधाई
जज्बातों को खूबसूरती से पिरोया है आपने। कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से उम्दा गजल।
मैने अपने ब्लाग पर एक कविता लिखी है। समय हो तो पढ़ें-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
बहुत सुंदर गजल,
धन्यवाद
dinon baad aapkee ghazal se rubaru hua, sahiba khoob riyaaz hai aapka.ustaadi aa rahi hai, subhanallah!
parveen shakir ka she'r zihan mein goonjta raha;
main such bolungi phir bhi haar jaungi
vo jhootth bolega lajawaab kar dega!
gar parveen shakir ka naam zere-lab aagaya samajhiye aap kaamyaab hain.
aisi vidrohi shaayra ! kamaal ! kamaal!!
comment approval is not democratic,
plz convey my dantvat prnaam to gr8 APPROVAL
जबरदस्त!! शानदार रचना!!
’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
बहुत ही खूबसूरत गज़ल । श्रद्धा जी सबा के बाद आवारा हवा क्यों होना चाहतीं हैं ।
आखिर में बात ’वो’ की ही क्यों ?
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ
wahwa!! ati sundar!! jiyo!!
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊ
अच्छी अभिव्यक्ति , नव वर्ष मंगलमय हो
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
रात भर पहलूनशीं हों वो कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
खुदा कसम !!!!! सारी गजल पे भारी है ...जैसे दिल से निकले है
आपने जो लिखा है यह नया २०१० में यह ह्रदय को छू जाता है मै ग़ज़ल पसंद करता हु किन्तु खुद नहीं लिख सकता हु क्युकी मेरे में ऐसी काबिलियत नहीं है.
आपका बहुत बहुत आभार
शैलेन्द्र त्रिपाठी
+919274584757
stripathi30625@gmail.com
तेरी सदा दिली मार ना डाले मुझको.... ये किसी शे'र का मिसरा है ...
क्या खूबसूरती से बात आपने की है हर शे'र मुकम्मल , खयालात की ऊँची उड़ान हकीकत के लिबास में बहुत जच रही है, कुछ शे'र है जो अपने से लगते है और यहीं पर आप जीत जाती हैं... जैसा के श्रधेय सर्वत जी ने कहा है उनकी आबरू को भी ज़िंदा रखें बस बचाने की जरुरत नहीं है .. :) :)
मगर आपके द्वारा इरशाद करने के बाद शे'र कुछ ज्यादा ही अपने अपने लग रहे हैं.. क्या करूँ ? ? ?
देर आयद दुरुस्त आयद ...
आपका
अर्श
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
बहुत खूब ग़ज़ल कही है! उर्दू लफ्ज़ बहुत ख़ूबसूरती से डाले हैं...
Shrdha ji bahut khushi huyi meri ruh.
aapko badhyi ho.
कमाल ही कर दिया है आपने इस बार श्रद्धा जी! बहुत शानदार! मुकम्मल ग़ज़ल लगी मुझे। इसे ईकविता पर भी भेजिये।akti5200
कमाल ही कर दिया है आपने इस बार श्रद्धा जी! बहुत शानदार! मुकम्मल ग़ज़ल लगी मुझे। इसे ईकविता पर भी भेजिये।
bahut khoob...bahut khoob...
हर इक शेर को पढ़कर वाह निकली ! लुत्फ़ आ गया आपकी इस ग़ज़ल को पढ़कर।
बहुत अच्छी और
कामयाब ग़ज़ल कही है आपने
जज़्बात को
लफ़्ज़ों में पिरो लेने का हुनर
साफ़ झलक रहा है .....
पढने वाला हर शेर में खुद से भी मिल रहा है
ग़ज़ल की ये खासियत
आपको मुबारक हो
"लफ्ज़-दर-लफ्ज़ ग़ज़ल पढ़ के मिलूँ मैं खुद से
और फिर उसके लिए नेक दुआ हो जाऊं...."
ग़ज़ल तो थी ही नंबर एक...
मक्ते ने तो बस...
कमाल ही कर दिया....
रात कट जाए तो क्या जानिये.....
क्या हो जाऊं....
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
क्या लिख डाला है आपने.. कमाल है..सिर्फ कमाल
BIDISHAN ME GAYA HOON DO BAAR..
BAHUT HI ACHA SHAR HAI.....
SHARDA JI...
KYAKI MERA NANIHAL HAI ITARSI.....
I LIKE AL MP
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
बेहद उम्दा ........ लाजवाब गाज़ल है ....... हर शेर नये तेवर के साथ अपनी कहानी कह रहा है ...... बेमिसाल .. . आपको नाव वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएँ ........
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
रात भर पहलूनशीं हों वो कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
बहुत दिनों बाद नेट पर आना हुआ !आपकी ग़ज़ल पढ़ी ! श्रृद्धा जी , आप सचमुच श्रृद्धा हैं ! साकार!समझ में नहीं आरहा है किप्रशंसा को क्या शब्द दूँ !बेजोड़ मतले से लेकर एक एक शे'र चुना हुआ मोती है ,आबदार, और मक्ता तो अपने आप में ही एक पूरी ग़ज़ल समेटे हुए है ! अद्वितीय !समर्पण की पराकाष्ठा को छूता हुआ !
बहुत सुन्दर रचना !
एक बेहद प्रभावशाली गजल है सभी के सभी शेर बजनदार हैं खासतौर पर ये शेर :-
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
... अत्यन्त प्रसंशनीय है !!!!!
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
क्या कहूं, और कहने को क्या रह गया....अतिसुन्दर.
आप तो बहुत ही खूबसूरत लिखती हैं
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
वाह , मज़ा आ गया
हर एक शेर लाजबाब :)
दी क्या लिख डाला है.. जैसे जान निकाल के रख दी आपने... बस निःशब्द हूँ
shukriya aapka mere blog par ane keliye aage bhi mera hosla badate rehana
dhanyawaad....
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
वाह क्या सही बात कही
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
बहुत खूब वैसे किस किस शेर की तारीफ करूँ गज़ल बहुत ही खूबसूरत है बधाई
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
This one is too good.
बहुत खूब
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
....Bahut khub..behad khubsurat shabd-chitra.
श्रद्धा जी , वाह -वाह --
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
हृदय को छूती ग़ज़ल --बधाई.
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
धूप में साया, सफ़र में हूँ कबा फूलों की
मैं अमावस में सितारों की जिया हो जाऊँ
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ
पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर की बहुत सी ग़ज़लों का रंग नज़र आया आपकी इस ग़ज़ल में सारे शेर अच्छे थे......क्या खूब अलफ़ाज़ और एहसासों का ताना बना बुना है आपने......!
श्रद्दा जी, आदाब
आपकी हर रचना का अलग मैयार है
ये मुकम्मल ग़ज़ल, इसका हर शेर दाद का मुस्तहिक है-
खास तौर पर-
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
आधी दुनिया की बेबसी का फसाना बयान किया है आपने
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ
वाह, बहुत खूब
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
आप बहुत अच्छा कहती हैं, मुबारकबाद
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बेहतरीन ग़ज़ल श्रद्धा जी... आप हमेशा ही बहुत बेहतरीन कहती हैं... ब्लाग का नया कलेवर भी बहुत खूबसूरत है.. बधाई..
bahut khoob.
apki rachna se prabhavit hua hoon.
yah mumkin nahin ki main khamoshi se fana ho jaoon.
koi patthar bhi nahin ki koi pooje khuda ho jaoon.
कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
धूप में साया, सफ़र में हूँ कबा फूलों की
मैं अमावस में सितारों की जिया हो जाऊँ
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
रात भर पहलूनशीं हों वो कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
पूरी गज़ल शान्दार है
हर जगह वाह वाह लिखने से बचकर
लिखता हू वाह, शानदार गज़ल
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
रात भर पहलूनशीं हों वो कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
behtareen
जबरदस्त!! शानदार रचना!!
shraddha ji aaj pahli bar apke blog tak pahunchi hoon aur mahsoos kar rahi hoon ki ab tak main kyon mahroom rahi ,bahut achchhi ghazal hai ,main ne kai ghazlen padh leen apki jaldi jaldi ab to is blog par aana padega ,mubarakbad sweekar karen .
koi patthar nahi ki khuda ho jaun... jaandaar panktiyaan... sach aur bhaav dono se paripurna...
बहुत खूब कही गई है गजल ।
कोई पत्थर तो नहीं हूँ , कि ख़ुदा हो जाऊँ
शुक्रिया ।
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
बहुत खूब.....!!
मैं मुहब्बत हूँ, मुहब्बत तो नहीं मिटती है
एक ख़ुश्बू हूँ , जो बिखरूँ तो सबा हो जाऊँ
waah! kya baat hai!
-bahut hi khubsurat gazal hai!
Wah,wah..
shabd nahi tarif ke liye.
kya khoob kaha hai ..shradhdha.
I wish u a happy new year.
www.poetry-ajit.blogspot.com
wah wah wah , sabh sher behatareen/lajawaab.
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
बहुत सुन्दर ग़ज़ल श्रद्धा जी !
माफ़ी चाहूँगा बड़े दिनों बाद आ पाया आपके ब्लॉग पर !
यूँ ही इस नवे वर्ष में भी आप सुन्दर सुन्दर ग़ज़ल रुपी पुष्पों से इस साहित्य उपवन को समृद्ध करती रहें !
Waah !
Naye saal kee anek shubh kamnayen detee hun!
रात भर पहलूनशीं हों वो कभी “श्रद्धा” के
रात कट जाए तो, क्या जानिये क्या हो जाऊँ
वाह श्रद्धा जी..वाह..एकदम भीगी हुई गज़ल..
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ.....
वाह,गजब की लाइनें.
नयी ग़ज़ल देख कर आया तो पाया कि ये वाली ग़ज़ल तो छूट ही गयी थी...तो पहले इसे पढ़ने आ गया।
गज़ब का मतला मैम...गज़ब का।
"मैं अमावस में सितारों की जिया हो जाऊँ" वाला मिस्रा तो उफ़्फ़्फ़! और चौथा शेर एकदम से परवीन शाकीर की याद दिला गया...
और फिर मक्ते ने रही-सही कसर पूरी कर दी।
दूसरे शेर का मिस्रा-सानी..."कि" की वजह से तनिक अटपटा लग रहा है पढ़ते वक्त। पता नहीं, शाय्द मुझे ही लग रहा हो...
गर इजाज़त दे ज़माना, तो मैं जी लूँ इक ख़्वाब
बेड़ियाँ तोड़ के आवारा हवा हो जाऊँ
sundar ....
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कैसे मुमकिन है, ख़मोशी से फ़ना हो जाऊँ
कोई पत्थर तो नहीं हूँ, कि ख़ुदा हो जाऊँ
फ़ैसले सारे उसी के हैं, मिरे बाबत भी
मैं तो औरत हूँ कि राज़ी-ओ-रज़ा हो जाऊँ
बढिया
bahut khubsoorat sradha ji
apke blog ko abhi padhna suru kiya hai
aur aisa lagta hai kiekhibaar me apki sari gazal padh lun
bahut acha likhti hain aap
आपकी गजलो में भाषा की प्रांजलता एवम सरसता है !
आपकी भाषा प्रांजल है आपके भावों एवम भाषा में समन्वय है
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