ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
तेरे बगैर लगती है, अच्छी मुझे फ़िज़ाँ नहीं
सरसर लगे सबा मुझे, गर पास तू ए जाँ नहीं
(सरसर - रेगिस्तान की गर्म हवा)
(सबा - ठंडी हवा)
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
कल रात पास बैठे जो, हम राज़दार हो गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
(ज़ियाँ – नुकसान)
क्यूँ दिल मेरा ये, दिलजलों की नासेहा सुने नहीं
माँगा करे दो प्यार के पल, उम्रे जाविदाँ नहीं
(नासेहा – नसीहत ) (उम्रे जाविदाँ - लंबी ज़िंदगी )
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
58 comments:
बेहतरीन...............
अरसे बाद कलम को फुरसत मिली आपकी....ये शेर खास पसंद आया...
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
कल रात पास बैठे जो, हम राज़दार हो गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
क्यूँ दिल मेरा ये, दिलजलों की नासेहा सुने नहीं
माँगा करे दो प्यार के पल, उम्रे जाविदाँ नहीं
लाजवाब .. ये तीन शेर .... बस लाजवाब हैं. ग़ज़ल ही खूबसूरत है .. लेकिन ये तीन शेर ब-तौर-ए-ख़ास !
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
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लाजवाब गज़ल के लिये बधाई
Aakhiri sher kamal ka hai shradha ji
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
कल रात पास बैठे जो, हम राज़दार हो गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
बहुत बढिया
काफी दिनों के बाद आप आई। अच्छा लगा।
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
वाह क्या बात कही है।
pphir se bahut accha aur dil ko chuta hua likha hai.....
nayaab gazal......
bahut achhi gzal
parantu meri urdu kamzor hone ke karan, baar baar shabd ka matlab ja kar dekhna paD raha tha..
Waise bahut sundar likhaa hai aapne aur kaafi arse ke baad...
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं.
वाह ! क्या बात है !
अरे वाह आपकी गज़ल तो बड़ी अच्छी है !
श्रृद्धा जी,
बड़ा मुकम्मल शेर है :-
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
बधाई।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
वाह वाह क्या बात है दिल खुश हो गया
बहुत सुन्दर
वीनस केसरी
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
--बहुत बेहतरीन रचना. मजा आ गया पढ़कर.
MUDDATON BAAD AAPKO PADHNE KA MAUKA MILAA HAI AUR UFFFFFF KYA KAMAAL KI GAZAL KAHI HAI AAPNE... MATALAA TO KAMAAL KA HAI HI BAS IS SHE'R PE GAUR KAREN TO KYA BAYAAN KARTI HAI ...
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
ITANI KHUBSURATI SE AAPNE SILSILA-E-MOHABBAT KO LIKHI HAI KE DIL WAAH WAAH KAH RAHAA HAI...
MAGAR YE SHE'R APNE AAP ME PURI GAZAL HAI...
कल रात पास बैठे जो, हम राज़दार हो गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
IS SHE'R PE SHRADHAA JI KUCHH BHI KAHNE KE LAAYAK AAPNE NAHI CHHODA .. BAS NISHABD HO GAYAA HUN... KYA BAARIKI NAZAR SE AAPNE KAHI HAI ..
WAAH JI WAAH... DHERO BADHAAYEE..
MAGAR JALDI JALDI PADHNE KA MUKA DEN....
ARSH
ग़ज़ब की प्रस्तुति
---
विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
आपकी गजल में दिनों दिन गहराई आती जा रही है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
बहुत अच्छा लिखा आपने
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
कल रात पास बैठे जो, हम राज़दार हो गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
लाजवाब ...!!!!
बहुत ही सुन्दर नज़्म है ..........बधाई
यूँ तो पूरी ग़ज़ल ही खूब सूरत है लेकिन ये शेर तो सब पर भारी है:
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
इस लाजवाब शेर के लिए आपको ढेरों बधाईयाँ...लिखती रहें...
नीरज
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
कल रात पास बैठे जो, हम राज़दार हो गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
bahut khoob shridha ji
बहुत इंतजार के बाद ब्लाग जगत पर आपका पुनः आगमन एक मुकम्मल ग़ज़ल के साथ बहुत ही अच्छा लगा. बहुत ही खूबसूरती से लिखी है आपने यह ग़ज़ल और यह शेर......
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
जो बेहद पसंद आया, वैसे बाकि शेर भी कम नहीं......
बधाई स्वीकार करें.
चन्द्र मोहन गुप्त
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूं की उठा धुआँ नहीं
aapne to bahut kuchh kah diya kuchh baki n raha.
afsos hai yah sab hota raha magar usne n suna.
bahut hi sundar man lubhavan bhav dil se badhaai !!!!!
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
Bahut achchhi rachna
waaaaaaaaah
बहुत बहुत शुक्रिया मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए! मेरे दूसरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है!
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! आपने इतना ख़ूबसूरत ग़ज़ल लिखा है जो काबिले तारीफ है!
सरसर लगे सबा मुझे, गर पास तू ए जाँ नहीं........बहुत खुबसूरत पंक्तियाँ जो मन को भा गई..मैं आज आपके ब्लॉग पर पहली बार आया...आपका ब्लॉग बहुत खुबसूरत है!!!!! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है...
shardha ji
namaskar .. aapk is gazal ko maine kal bhi padha tha aur aaj phir padh liya ... poori gazal bahut khoobsurat ban padhi hai ... waah ji waah ....
क्यूँ दिल मेरा ये, दिलजलों की नासेहा सुने नहीं
माँगा करे दो प्यार के पल, उम्रे जाविदाँ नहीं
mujhe ye sher bahut pasand aaya ...
badhai kabul kare...
सरसर लगे सबा मुझे, गर पास तू ए जाँ नहीं....
बहुत अच्छी बन पड़ी है.. वास्तव में सच्चाई का बयां...
shradha ji
bahut umda gazal hai.....
aapko dhe sari badhaeeya.....
क्यूँ दिल मेरा ये, दिलजलों की नासेहा सुने नहीं
माँगा करे दो प्यार के पल, उम्रे जाविदाँ नहीं..
बेहद खूबसूरत लाइन /रचना .
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
कमाल का शे'र है....काफी दिन में भीगी है गजल...
१६ फ़रवरी,,,,फिर १३ माई,,,फिर २ जुलाई....
लोग तो १ सप्ताह के लिए भी जाते हैं तो बाकायदा एक पोस्ट डाल कर जाते हैं....
के कुछ विराम ले रहे हैं....
आप ऐसे ही चली जाती हैं...
वाह साहब वाह
हर एक शेर शानदार है
खास तौर पर इनके लिए विशेष बधाई
तेरे बगैर लगती है, अच्छी मुझे फ़िज़ाँ नहीं
सरसर लगे सबा मुझे, गर पास तू ए जाँ नहीं
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
मानू जी ने बजा फरमाया है
आप इनसे छुट्टी लेकर जाया करें
बहुत खूब सूरत रचना कभी समय निकल कर मेरे ब्लॉग पर दस्तक दें मोहब्बत रूहानीज़ज्बा और मिलने की प्यास रहने देमेरी ताज़ा रचनाये पढ़कर मुझे आशीर्वाद दें
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
हर बार की तरह आपकी लेखनी एक सुखद एहसास है । इस एहसास को एक बार फिर संभालने की कोशिश कर रहा हू । धन्यवाद
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
WAH...
IS SHER TO KAMAL KA BAN PADA HAI !!
KAFI DER TAK SOCHNE PAR MAZBOOR KAR DIYA ISNE !!
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
arse बाद आपकी खुश gawaar ग़ज़ल padhne को मिली............ लाजवाब है हर शेर..........
क्यूँ दिल मेरा ये, दिलजलों की नासेहा सुने नहीं
माँगा करे दो प्यार के पल, उम्रे जाविदाँ नहीं
bahut achhi aur dilchasp ghazal kahi hai aapne ...har sher khud boltaa hai..apni daastaaN bayaan karta hai...lehja bhi kaamyaab hai.
abhivaadan svikaareiN.
---MUFLIS---
वाहवा..... क्या बात है.... बेहतरीन कहा है आपने...
मतला बेहद खूबसूरत है श्रृद्धा जी और ये शेर तो निहायत ही उम्दा बन पड़ा है !
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं !
बहुत अच्छा लिख रही है आप !
तेरे बगैर लगती है, अच्छी मुझे फ़िज़ाँ नहीं
सरसर लगे सबा मुझे, गर पास तू ए जाँ नहीं
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
आनन्द आ गया आज आपको पढकर ढेरों बधाई.
बहुत खूब श्रद्धा जी ! शुभकामनायें
मुद्दतों बाद ये आना और इन खूबसूरत अशआरों से हमें भीगो कर चले जाना फिर से अर्से के लिये...
ठीक बात नहीं!
इस बेमिसाल शेर "मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की/अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं" पर जितनी दाद दूँ, कम है!
यकीनन !!
..और कुछ दुर्लभ काफ़िये भी! मुश्किल बहर पर इतनी आसानी से बैठे मिस्रे...अहा !!!
क्या बात है, बहुत खूब..
यह शेर बहुत पसन्द आया।
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
कल रात पास बैठे जो, हम राज़दार हो गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
... बहुत खूब, उम्दा शेर, उम्दा गजल !!!!
Awesome...!!!! shraddha, hame aapse kafi kuch sikhna padega...
behtareen
अच्छी ग़ज़ल है । लिखती रहिये। कैफियत बढ़ती रहेगी।
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
इस शेर को पढ़ कर अपनी एक ग़ज़ल का शेर याद आ गया। ग़ज़ल के मतले के साथ पेश कर रहा हूँ।
जिस ने सर पर न आसमां देखा।
उस ने कब मंज़र-ए -निहाँ देखा।
आग कैसी थी कौन बतलाये
जिसने देखा है बस धुआं देखा।
मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं
kyaa baat hai.....abki baar to ham bhi gahre men kahin kho gaye....!!
"मैं जल रही थी, मिट रही थी, इंतिहां थी प्यार की
अंजान वो रहा मगर, क्यूंकी उठा धुआँ नहीं "
bahut khoobsurat sher hua hai shraddha ji...ek kamyaab gazal..
aaj apko padha ..aap bahut achha likhti hai ....
ye hui baat......
kai dino baad apko padha rahaa hoon...
lekin tazagi vahi hai.. :) :)
अंदाज़-ए-सुखन और था “श्रद्धा” ज़ुदाई में तेरी
लिख के ग़ज़ल में राज़ सब, कुछ भी किया बयाँ नहीं
सब कुछ लिख कर भी कुछ बयान नहीं करना यही आपकी सबसे बडी ख़ासियत है ...
Khubsurat bhavabhivyakti !!
waah kya baat hai?............
कल रात पास बैठे जो, हम राज़दार हो गये
टूटा है ऐतमाद बस, ये तो कोई ज़ियाँ नहीं
सादगी से बहुत गहरी बात कह दी आपने श्रद्धा जी
श्याम सखा श्याम
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