नज़र नहीं आती
घटा से घिर गयी बदली, नज़र नहीं आती
बहा ले नीर तू उजली, नज़र नहीं आती
हवा में शोर ये कैसा सुनाई देता है
कहीं पे गिर गयी बिजली नज़र नहीं आती
है चारों ओर नुमाइश के दौर जो यारों
दुआ भी अब यहाँ असली नज़र नहीं आती
चमन में खार ने पहने, गुलों के चेहरे हैं
कली कोई कहाँ, कुचली नज़र नही आती
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
1212/1122/1212/22
57 comments:
हरेक ओर नुमाइश के दौर हैं यारों
कोई सूरत भी तो, असली नज़र नहीं आती
जीवन की सच्चाईयों से रुबरू कराती आपकी गज़ल बहुत अच्छी बन पड़ी है....बधाई स्वीकारें
waah bahut khub lajawaab
श्रद्धा जी आपकी ग़ज़लें पढ़ी। बहुत ही अच्छी रचनाएं हैं ये। आप इन्हें पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिए अवश्य ही भेंजे। यदि पत्रिकाओं के पते चाहिए तो मेरे ब्लाग पर अवश्य ही पधारें आपकों पत्रिकाओं की समीक्षा के साथ ही उनमें प्रकाशित रचनाओं का विवरण भी मिल जाएगा।
मैं भी मध्यप्रदेश के एक छोटे शहर इटारसी का रहने वाला हूं। विदेशी धरती से कोई अपना हिंदी के लिए काम कर रहा है यह जानकार खुशी हुई।
विनीत
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथा चक्र
my blog url is
http;//katha-chakra.blogspot.com
akhilesh Shukla
editor Katha Chakra
इस गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना और विश्वास कि आपकी सृजनधर्मिता यूँ ही नित आगे बढती रहे. इस पर्व पर "शब्द शिखर'' पर मेरे आलेख "लोक चेतना में स्वाधीनता की लय'' का अवलोकन करें और यदि पसंद आये तो दो शब्दों की अपेक्षा.....!!!
हरेक ओर नुमाइश के दौर हैं यारों
कोई सूरत भी तो, असली नज़र नहीं आती
......
jaandaar dhang se asliyat ko rakh diya,bahut hi achha likha hai
श्रद्धा जी लाजवाब .....
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बेहतरीन........... पर पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि गिरह बहुत अच्छी है... बहरहाल.. अच्छे शेर निकाले.. आप को बधाई..
हरेक ओर नुमाइश के दौर हैं यारों
कोई सूरत भी तो, असली नज़र नहीं आती
इत्तिफाक से आपके ब्लॉग पर आना हुआ...आकर लगा कि वो बहुत खूबसूरत इत्तिफाक था.
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है...समय की गति में कहीं हलकी पड़ती जा रही मानवीय संवेदनाओ की कटिबद्धता और अनिश्चितता का बहुत सुंदर चित्र उकेरा है आपने.
खूबसूरत ग़ज़ल है.
गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना .
गणतंत्र दिवस की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं
http://mohanbaghola.blogspot.com/2009/01/blog-post.html
इस लिंक पर पढें गणतंत्र दिवस पर विशेष मेरे मन की बात नामक पोस्ट और मेरा उत्साहवर्धन करें
हरेक ओर नुमाइश के दौर हैं यारों
कोई सूरत भी तो, असली नज़र नहीं आती
कभी सुलझे नहीं माथे की, सलवटें उसकी
कोई तारीख में, पहली नज़र नहीं आती
चमन में खार ने पहने, गुलों के चेहरे हैं
कली किसने कहाँ, कुचली नज़र नहीं आती
एक से बढ़ कर एक खूबसूरत और असर दार शेरों से सजी ये ग़ज़ल लाजवाब है...आप में कहने का हुनर बहुत खूब है...लिखती रहें...वाह.
नीरज
सुंदर है हर शेर श्रद्धा। मगर शायद बहर को थोड़ा सा और बाँधने की ज़रूरत है।
इम्तहां होने वाले थी इंतजार की मैम...
दिनों बाद आयी आपकी ये गज़ल और आखिरी शेर ने "पहाड़ों से गिरा झरना, तो बोली ये ज़मीं/ये दिल की पीर थी, पिघली नज़र नहीं आती" मन मोह लिया...
बहुत सुंदर...
श्रद्धाजी
ग़ज़ल सुंदर,
भाव अच्छे,
और
शेर भी भाव प्रधान.
अच्छा शेर-
कभी सुलझे नहीं माथे की, सलवटें उसकी
कोई तारीख में, पहली नज़र नहीं आती
- विजय
बहुत अच्छा लिखा है.........गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
ये कैसा शोर हवाओं में आज़ दिखता है
कहीं पे गिर गयी, बिजली नज़र नहीं आती
बहुत खूबसूरत बन आयी है यह रचना, हर लफ्ज़ कुछ दास्ताँ बयान करता है, हर शेर लाजवाब है
बधाई है आपको
चमन में खार ने पहने, गुलों के चेहरे हैं
कली किसने कहाँ, कुचली नज़र नहीं आती
श्रद्धा जी, वाह! आपको, आपके परिवार एवं मित्रों को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई! वंदे मातरम!
हरेक ओर नुमाइश के दौर हैं यारों
कोई सूरत भी तो, असली नज़र नहीं आती
-हर शेर उम्दा!! दाद कबूलें जी!
आपको एवं आपके परिवार को गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
अच्छी ग़ज़ल अच्छा लिख रही हैँ श्रद्धा जी। गणतंत्र दिवस की हार्दिन शुभकामनाएं
हर एक शेर सुन्दर हैं। लाजवाब।
हरेक ओर नुमाइश के दौर हैं यारों
कोई सूरत भी तो, असली नज़र नहीं आती
सच के करीब।
हरेक ओर नुमाइश के दौर हैं यारों
कोई सूरत भी तो, असली नज़र नहीं आती
कभी सुलझे नहीं माथे की, सलवटें उसकी
कोई तारीख में, पहली नज़र नहीं आती
बहुत खूब....अरसे बाद आना हुआ .
बहुत सुन्दर ग़ज़ल
है.
बधाई.
चमन में खार ने पहने, गुलों के चेहरे हैं
कली किसने कहाँ, कुचली नज़र नहीं आती
जबरदस्त शेर !
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए ............
ग़ज़लें तो अच्छी हैं.....मन को भा गई हैं........अब मेरे मन को अपनी गज़लों से बाहर निकालें.......प्लीज़.....!!
बेहतरीन गजल कही है। बधाई।
बहुत खूबसूरत गजल।
हरेक ओर नुमाइश के दौर हैं यारों
कोई सूरत भी तो, असली नज़र नहीं आती
लाजवाब .....
श्रीमती श्रद्धा जी,
बहुत अच्छा लगा कि विदेश में रहते हुए भी आपने देश प्रेम और हिन्दी प्रेम को यथावत सहेज कर रखा,
इसी तरह प्रेम बनाये रखे एवं अपनी माटी से जुड़े संवादों को शब्दों के जरिये ब्लॉग में बयां करते रहें और हमें इसका रसस्वादन करवाते रहें! इसी कामना के साथ...
सस्नेह !
दिलीप गौड़
गांधीधाम
Shraddha ji.
aapne meri tareef ki, is liye shukriya, but mera likha aapke likhe ke saamne kuchh bhi nahin hai...
aap to bahut bahut achha likhte ho..main to sirf ek hi topic par likh pata hu..
Main soch hi raha tha ke differnt topics par likhna kaise seekhoon....ab mujhe lagta hai meri talash khatam ho gayii, aapki gazals padh kar seekhoonga...
Bahut hi badhia...
वाह श्रद्धा! अब बहुत सुंदर हो गई है ये ग़ज़ल।
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
bahut khub
चमन में खार ने पहने, गुलों के चेहरे हैं
कली कोई कहाँ, कुचली नज़र नही आती
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
bahut hi shandar gazal ye do sher khash hain.......kaee sal bad ek shandar gazal padhi hai.....
.....aap ko tahe dil se badhaee
shradha ji
kitna behtar likha hai . ye lines ultimate hai .
है चारों ओर नुमाइश के दौर जो यारों
दुआ भी अब यहाँ असली नज़र नहीं आती
aap yun hi likhe , behtar likhe , aur likhe .. hamne aapki nazmon ka intjaar rahenga ..
meri nai post dekhiyenga
dhanywad..
aapka dost
vijay
युवा शक्ति को समर्पित ब्लॉग http://yuva-jagat.blogspot.com/ पर आयें और देखें कि BHU में गुरुओं के चरण छूने पर क्यों प्रतिबन्ध लगा दिया गया है...आपकी इस बारे में क्या राय है ??
बहुत ही प्यारी गजल कही है आपने, बधाई। यह शेर तो बहुत ही प्यारा है
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
बहुत ख़ूब श्रद्धा जी। बहर मुजतस मुसम्मन मख़बून मक़सूर लेकर ग़ज़ल लिखना आसान नहीं। दाद क़ुबूल कीजिए।
कुछ शायर आख़िर के २२ को ११२ (फ़ इ लुन) भी लिखते हैं लेकिन फ़र्क़ नहीं पड़ता।
अच्छा लिखती हो।
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार करें।
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
" what a touching expressions....specially these lines...liked it"
Regards
yah post gagar me sagar
बहुत अच्छी रचना है।
Man ko chu gayi aapki rachna.
एक बहोत ही खूबसूरत और म्यारी ग़ज़ल
कहने पर मुबारकबाद कुबूल कीजिये ...
'''हैं चारों और नुमाईश के दौर जो यारो....
बहोत लाजवाब शेर है...सीधा दिल में उतरने वाला...
फिर से मुबारकबाद के साथ . . .
"कई सवाल दिलो-ज़हन को सताते हैं ,
मिरी हयात भी संभली नज़र नहीं आती..."
---मुफलिस---
सुन्दर प्रयास...सक्रियता बनाये रखें !!
Nice poem... really superb..
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
Badhi
Bahot khoobsurat rachna...
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
Ghustakhi muaaf, hame pata hai aap hamari har ghustakhi muaaf kar deti hain, arse baad waqt mila...kuch sochne ko...shukriya dost.
kisi ek sher ko naheen pooree gazal ko sarahataa hoon
है चारों ओर नुमाइश के दौर जो यारों
दुआ भी अब यहाँ असली नज़र नहीं आती
bilkul sahi...
चमन में खार ने पहने, गुलों के चेहरे हैं
कली कोई कहाँ, कुचली नज़र नही आती
behad umda ..........
छत्तीसगढ के विचार मंच में आपक स्वागत, है अगर आपके कोई भी खबर या जानकारी है जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध छत्तीसगढ से है तो बस कह दीजिये हमें इंतजार है आपके सूचना या समाचारों का घन्यवाद
छत्तीसगढ के विचार मंच में आपक स्वागत, है आपके पास कोई खबर या जानकारी है जिसका प्रत्यकक्ष या अप्रत्यकक्ष सम्बन्ध छत्तीसगढ से है तो बस कह दीजिये हमें इंतजार है आपके सूचना या समाचारों का घन्यवाद .....
वाह श्राद्धा जी एक बार फिर और अधिक निखरी हुई गज़लें पढ़ने को मिली।
है चारों ओर नुमाइश के दौर जो यारों
दुआ भी अब यहाँ असली नज़र नहीं आती
Wah..!! kya baat he !! bahot khub
रचना बहुत अच्छी लगी।
आप का ब्लाग बहुत अच्छा लगा।आप मेरे ब्लाग
पर आएं,आप को यकीनन अच्छा लगेगा।
पहाड़ों से गिरा झरना तो यूँ ज़मीं बोली
ये दिल की पीर थी पिघली नज़र नही आती
क्या बात है ,बहुत खूब
श्याम सखा श्याम
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