कभी
वक़्त करता कुछ दगा या, तुम दगा करते कभी
साथ चलते और तो, हम भी बिछड़ जाते कभी
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी
कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे अब प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज्र में जलते कभी
कल सिसक के हिन्दी बोली, ए मेरे बेटे कहो
क्यूँ शरम आती है तुमको, जो मुझे लिखते कभी
आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी
Beh'r =2122/2122/2122/212
58 comments:
बहुत बढ़िया है ....
very gd sharda ji...........
pad kar acha lga
कल सिसक के हिन्दी बोली, ए मेरे बेटे कहो
क्यूँ शरम आती है तुमको, जो मुझे लिखते कभी
yeh do line apaki bhut badiya hai.....
कल सिसक के हिन्दी बोली,ए मेरे बेटे कहो
क्यूँ शरम आती है तुमको,जो मुझे लिखते कभी
bahut sundar abhivyakti. abhaar hindi ke liye likhane ke liye .
dino baad aaj achcha laga.aapki taaza rachna dekh kar.
kuch sher peecha karte rahenge.
ise gazal ki taarif samjha jaaye.
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी
कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे अब प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज़ृ में जलते कभी
wah bahut sundar
shradhaji
badi prakhar abhivyakti hai aapki. yon to aapki gazal ka har sher bahut umda hai lekin is sher ki baat hi kutch aur hai-
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
maine bhi ek gazal apney blog per likhi hai. aap jaroor padhein.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
har sh'er umda hai!
अद्भुत रचना। हर शेर लाजवाब है।
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
--हर शेर अपने आप में पूरा है. बहुत उम्दा रचना!! वाह वाह!
आपकी गजल बहुत बढिया लगी ।
कल सिसक के हिन्दी बोली, ए मेरे बेटे कहो
क्यूँ शरम आती है तुमको, जो मुझे लिखते कभी
bahut sunder rachana
vist if possible
at my blog
makrand-bhagwat.blogspot.com
regards
keep writing and do comment too
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी
kya baat hai
खुबसूरत
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
.....
bahut achhi
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी
" what a beautiful thought, appreciable'
regards
किस-किस अशआर की तारीफ़ करूं
पूरी ग़ज़ल ही उम्दा है.
पहली बार टिप्पणी दे रहा हूं। मुझे मालूम नहीं यह गज़ल है, गीत है या कविता, लेकिन मेरे मन को भा गया है। इसमें तो प्रेमी और प्रेयसी तो हैं ही, देश, भाषा और अपने जमीन की कसक भी है। मुझे तो लगा आपने अपने को ही अभिव्यक्त किया है। धन्यवाद और शुभकामनाएं स्वीकार करें।
अनिल सौमित्र
http://lalmirchi-anilsaumitra.blogspot.com/
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी
कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे अब प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज्र में जलते कभी
बहुत उम्दा शेर हैं।
बहुत बहुत बधाई। अपनी माटी और अपनी भाषा के लिए इतनी तड़प में आपकी निजता झलकती है, और क्यों न हो, होना भी चाहिए।
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी।
बहुत प्यारे शेर है, बधाई।
कल सिसक के हिन्दी बोली, ए मेरे बेटे कहो
क्यूँ शरम आती है तुमको, जो मुझे लिखते कभी
क्या बात कही आपने ,बहुत खूब
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी
Bahuthi Khoobsurat
Aapko Badhai...
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी .
Wow,kay bat hai aap ki likhni me...
Jo dil ko chhoo le vah geet ban jata hai..
Jiska dil se dil mil jaye vah meet ban jata hai...
Aap ki rachan dil ko chho gayi aur kya kahoon mai...
http://www.dev-poetry.blogspot.com/
shradhaji,
ek baat aur.maine apney blog per ek lekh- kitni ladaeian ladeingi adkiyan- likhe hai.is per aapki rai mere liye badi matavpurn hogi.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
बहुत सुंदर /आजकल रिश्तों में क्या है लेने देने के सिवा तथा हिन्दी की शर्म =बहुत उत्तम रचनाएं हैं =मेरी यह कमेन्ट यदि इत्तेफाकन प्रमोद जी जो हास्य व्यंग रचियता हैं और झारखंड के है वे पढ़ पायें तो उनसे गुजारिश है की १७ सितम्बर को बे -शर्म आतंकबाद और २५ सितम्बर कबीर दास के बाद उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा है /वैसे ही तो व्यंग्य रचनाओं की कमी है -ज्यादातर हकीकत ही ब्यान होती है और ये जो चुटीला माध्यम है किसी को समझाने का उसके रचियता लिखते नहीं है /गंभीर रचनाओं से लोगो को समझाने की वजाय "" गुड़ से मरे तो जहर क्यों दीजे ""वाली बात ही तो करें / वैसे तो लेट कमेन्ट कर रहा हूँ फिर भी किसी की नजर में आजाये तो प्रमोद जी तक पहुचाने की कृपा करें
'आजकल मिट्टी वतन की…'
प्रवासी मन की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति।
बहुत सुन्दर।
बहुत ख़ूबसूरत
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
bahut sunder rachana shradha ji
regards
dino bad fir ek umda ghazal padhane ko mila... upar se ye sher...
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
sach me sahi kaha hai aapne .. aapko dhero badhai...
regards
कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे अब प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज्र में जलते कभी
कल सिसक के हिन्दी बोली, ए मेरे बेटे कहो
क्यूँ शरम आती है तुमको, जो मुझे लिखते कभी
आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी
waah...bahut khoobsurat sher hain.
दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ ""पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ ""
bahut sundar
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी
कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे अब प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज्र में जलते कभी
बहुत खूब लिखा है आपने बहुत सुंदर.
कैसी हैं श्रधा जी? पहचाना मनुज मेहता फ्रॉम अंदाज़-ऐ-बयां ओं ऑरकुट.
दीपावली की हािदॆक शुभकामनाएं । ज्योितपवॆ आपके जीवन में खुिशयों का आलोक िबखेरे, यही मंगलकामना है ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
बहुत बढ़िया। बधाई।
आप कहां हैं आजकल...?
hum kuch khe dete shabd hote gar hum par abhi ...
abhi huin deen shabdon na to luta deta shabd sabhi......
श्रद्धा जी,
शानदार ग़ज़ल प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.
निम्न शेर दिल को कुछ विशेष छु गया ...................
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
चन्द्र मोहन गुप्त
बहोत दिन हो गए आपको पढ़े . कहाँ है आप....?
आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते क
bahut khoob, watan ki yaad itni hi shiddat se aati hai, maine bhi par-des bhoga hai.
"baith jaata hu jahan chhaon ghanee hoti hai,
Hai kya cheez gharibul watani hoti hai. m.h.
कल सिसक के हिन्दी बोली, ए मेरे बेटे कहो
क्यूँ शरम आती है तुमको, जो मुझे लिखते कभी
पहले भी मिटटी वतन की,रोज़ कहती थी तुझे
लौट आओ ऐ परिंदों,शाम के रहते कभी
श्रद़धा जी, आपकी रचनाओं के ताज़ापन ने तारीफ के लिए मजबूर कर दिया....
Hi, nahin jaanta ki aap itna khoobsurat kaise likh paati hain... tamanaa bus itni hai ki kisi din aap-sa likh sakun... office ka koi kaam nahin kar saka aaj, ek sanjog ki aapke blog tak pahunch gaya, aur wahin kho ke rah gaya... atishayokti nahin, such!!!
Kabhi mauka mile to ek nazar mere blog par bhi... shayad aapki salaah meri lekhni ko behtar bana sake...!!!
लगता है हिन्दी जान है आपकी और ये भी जान लीजिए हम भी उस पर कुर्बान हो सकते है , कभी आप का वक्त न कट रहा हो तो इस बन्दे के अनजाने से ब्लॉग पर भी दस्तक दे
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
bahut sundar
New Post :- एहसास अनजाना सा.....
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी
sraddha ji,
Indeed, your word's are so nice. I like It. so, I'm going to publish it in Dainik Prasaran, Ratlam.
Kindly, send me your postal address to my mail, early. so, copy may be sent by post.
mail is- pan_vya@yahoo.co.in
regards
Dii..pehchaane ki nahi...aapka ye blog bhala humse aaj tak chhipa kaise raha :O
aur itne waqt se yahan kuchh post nahi kiya hai aapne....intezaar rahegaa
जो नीरज जी के माध्यम से आप मेरी गज़ल पढने नहीं आती तो मैं तो इस बेमिसाल गज़ल और आपके अन्य रचनाओं से शायद वंचित ही रह जाता.
इन शेरों की साम्राग्यी को सलाम "कल सिसक के हिन्दी बोली, ए मेरे बेटे कहो / क्यूँ शरम आती है तुमको, जो मुझे लिखते कभी" और "कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे अब प्यार में / चाहतें रहती जवाँ, गर हिज्र में जलते कभी "
और बहर एकदम चुस्त-दुरूस्त ये बात और काबिले-तारीफ
लेकिन ये तो बहुत पुरानी पोस्ट है...कुछ और तो रखिये यहां
आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी
आप यकीनन बहुत अच्छा लिखती हैं लेकिन इतनी अच्छी ग़ज़ल के बाद अब तक इतना लंबा सन्नाटा क्यूँ पसरा है आप के ब्लॉग पर? कुछ नया क्यूँ नहीं लिखा ये बताएं जरा.
नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाये.
नीरज
itane din se orkut mitra hone ke bavajud afsos ki mai pahali baar aai blog par....!
bahut khoob..! behad achchha likhti hai.n aap
आपकी ग़ज़लें अच्छीं लगीं, सबसे मजेदार बात ये है कि आप बहर और वज़्न का पूरा-पूरा ख़्याल रखती हैं और आपका ख्याल भे उम्दा है। बेहतर लिखने के लिए आपको मेरी ओर से ढेरों बधाई।
सुन्दर कविता ..
"नव वर्ष २००९ - आप सभी ब्लॉग परिवार और समस्त देश वासियों के परिवारजनों, मित्रों, स्नेहीजनों व शुभ चिंतकों के लिये सुख, समृद्धि, शांति व धन-वैभव दायक हो॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ इसी कामना के साथ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं "
regards
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है मुझे
लौट आओ ए परिंदों, शाम के ढलते कभी।
bahot ki khubsurat khayalat...
wwakai,, aapka likha hua padhkar watan ki yaadein tazza
ho gayi...
kuch apni kalm se bhi... shayd adhurasa...
''Maana ki main hun jahan wahan jasn hai har oor,
har waqt sitaare yahan pe jhilmilaate hain.
Lekin nahi hai yahan wo mitti ki mahak jo,
meri gazal aur mere sher gungunaate hain.
Kuch to hai kashish teri Mohabbat mein aye watan!!
ham dur jaake tere paas laut aate hain.....!!!''
Rag,
Mobility Research Nordic AB,
Kista,Sweden
आपकी कवितायेँ पहली बार पढ़ी. बहुत सुंदर रचनाएँ आप करती हैं. 'आजकल रिश्तों में क्या है, लेने- देने के सिवा' बहुत खूब ! बहुत अच्छी रचना है.
आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी
kya baat kah di aapne shradhaa ji...just gr8
थक गये थे तुम जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी
बहुत ही खूबसूरत
श्याम सखा
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