Sunday, July 27, 2008

वो सुख तो कभी था ही नहीं,

जिसकी तलाश मुझे भटकाती रही,
चाह में खुद को जलाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं

बेसबब उन पथरीली राहों पर चलकर
खुद को ज़ख़्मी बनाती रही,
कभी गिरती कभी सम्हल जाती
सम्हल कर चलती तो कभी लड़खड़ाती
लड़खड़ाते कदमो को देख लोग मुस्कराते
कोई कहता शराबी तो कई पागल बुलाते
पर कोई न होता जो मुझे सम्हाल पाता
गिरे देखकर अपना हाथ बढ़ाता
जिसकी तलाश में खुद को गिराती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं

अधूरे एहसास के साथ मैं चलती रही,
मिलन की आस लिए कल – कल बहती रही
कभी किसी झील, तो कभी नहर से मिली ,
कभी झरने में मिलकर, संग संग गिरी
मिला न वो,जो मुझमे मिलकर मुझे संवारे
मेरे रूप का श्रगार कर इसे और निखारे
जिसके लिए अपने वजूद को मिटाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं

27 comments:

Anil Pusadkar July 27, 2008 at 2:26 PM  

wo sukh to kabhi tha hi nahi..... kya baat hai

डॉ .अनुराग July 27, 2008 at 2:42 PM  

जिसके लिए अपने वजूद को मिटाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं


ye line punchline hai....

कामोद Kaamod July 27, 2008 at 2:42 PM  

जिसकी तलाश मुझे भटकाती रही,
चाह में खुद को जलाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं

बहुत गहराई वाली बात कह दी आपने.

सुशील छौक्कर July 27, 2008 at 3:07 PM  

बहुत ही खूबसूरत रचना।

जिसकी तलाश मुझे भटकाती रही,
चाह में खुद को जलाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं

मिला न वो,जो मुझमे मिलकर मुझे संवारे
मेरे रूप का श्रगार कर इसे और निखारे
जिसके लिए अपने वजूद को मिटाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं

राज भाटिय़ा July 27, 2008 at 3:39 PM  

कया बात हे,"वो सुख तो कभी था ही नहीं,श्रद्धा जैन जी , धन्यवाद सुन्दर रचना के लिये

रंजू भाटिया July 27, 2008 at 4:21 PM  

YAH TALASH KABHI KHTAM NAHI HOTI ..SUNDAR LAGI AAPKI RACHANA ..

Satish Saxena July 27, 2008 at 4:42 PM  

very nice !

तरूश्री शर्मा July 27, 2008 at 5:55 PM  

कभी किसी झील, तो कभी नहर से मिली ,
कभी झरने में मिलकर, संग संग गिरी
मिला न वो,जो मुझमे मिलकर मुझे संवारे...

अच्छा लिखा है आपने श्रद्धा जी,

एक प्यास जो पानी के साथ जिंदा है....
एक आस जो तारे के पास मिट बैठी।

समय चक्र July 27, 2008 at 6:27 PM  

खूबसूरत रचना .

नीरज गोस्वामी July 27, 2008 at 9:12 PM  

सुख अजीब है....कभी हाथ बढाओ और पकड़ में आ जाता है या फ़िर सुख एक मरीचिका है... जो कभी मिलता नहीं लेकिन उसे पाने को हम जीवन भर दौड़ते रहते हैं और जब तक सत्य का भान होता है बहुत देर हो चुकी होती है...बहुत अच्छा लिखा है आपने...बधाई
नीरज

डा. अमर कुमार July 27, 2008 at 9:35 PM  

.

जिसके लिये अपने वज़ूद को...
बहुत ही अलग किस्म का एहसास देता है
अति सुदंर

रंजन गोरखपुरी July 27, 2008 at 9:54 PM  

One of your best creation!!

सांसारिक मिथ्या के प्रभावशाली चित्रण के साथ साथ सुख रूपी मायाजाल को खूबसूरती से परिभाषित किया है रचना में!
मेरी तमाम शुभकामनाएं!!

شہروز July 27, 2008 at 11:41 PM  

वो सुख तो कभी था ही नहीं

सच हमेशा कड़वा ही होता है.
बेचैनी भी कड़वाहट ही है.लेकिन ज़िन्दगी आखिर जीनी ही होती है.
शाद अजीमाबादी की इक ग़ज़ल का मतला भी आप ही के सच और बेचैनी को ब्यान करता है:
तमन्नाओं में उलझाया गया हूँ
खिलौना देके बहलाया गया हूँ

श्रद्धा जी , आनेवाला कल आपका ही है.
तूती बोलेगी आपकी शायरी .

ज़ाकिर हुसैन July 28, 2008 at 7:33 PM  

कभी किसी झील, तो कभी नहर से मिली ,
कभी झरने में मिलकर, संग संग गिरी
मिला न वो,जो मुझमे मिलकर मुझे संवारे...

बहुत खूब श्रधाजी !!
वाकई एक खुबसूरत रचना !!!
बधाई

vipinkizindagi July 28, 2008 at 9:44 PM  

बहुत ही सुन्दर रचना।

Vinay July 29, 2008 at 1:15 AM  

जिसके लिए अपने वजूद को मिटाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं

बहुत ही गहरा दर्द!

admin July 29, 2008 at 3:03 PM  

अधूरे एहसास के साथ मैं चलती रही,
मिलन की आस लिए कल – कल बहती रही
कभी किसी झील, तो कभी नहर से मिली ,
कभी झरने में मिलकर, संग संग गिरी

Bahut khoobsoorat panktiyaan hain, Badhaayi.

Sashikant July 29, 2008 at 7:05 PM  

Vedna ka itna spasht prakatikaran pana durlabh hai.....AApko koti-koti dhanyavaad, iss vishwaas ke sath ki aapki aagaami kavitayein issi tarah spasht aur bebaak hongi.

* મારી રચના * July 30, 2008 at 12:59 PM  

अधूरे एहसास के साथ मैं चलती रही,
मिलन की आस लिए कल – कल बहती रही

^ kitna sach likha hia apane..

Unknown July 31, 2008 at 12:30 PM  

कतरा कतरा सुख के पीछे भागती जिन्दगी, जो हमें कभी मिले न मिले, लेकिन किन्हीं लबों पर चंद पल की ख़ुशी देने के लिए, बस हम अपने आपको..... क्या अपना वजूद कुछ भी नहीं इस जीवन के लिए.

राजीव तनेजा August 2, 2008 at 9:54 AM  

सुख क्या है?...

क्षण भर की खुशी ना?...

कोई चीज़ जब दूर होती है तो लगता है कि उसे पा कर हम सुखी हो जाएंगे लेकिन जब वो चीज़ हमें मिल जाती है तो उसकी कीमत कुछ नहीं रहती,हम फिर आगे बढ निकलते हैँ और नई खुशियों की तलाश में।

इच्छाएं अनंत हैँ....अरमाँ बेहिसाब हैँ...

abhishek August 6, 2008 at 7:16 PM  

"अधूरे एहसास के साथ मैं चलती रही,
मिलन की आस लिए कल – कल बहती रही
कभी किसी झील, तो कभी नहर से मिली ,
कभी झरने में मिलकर, संग संग गिरी
मिला न वो,जो मुझमे मिलकर मुझे संवारे
मेरे रूप का श्रगार कर इसे और निखारे
जिसके लिए अपने वजूद को मिटाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं"


बहुत खूब!!!
दिल को छू गई.......

!!अक्षय-मन!! August 12, 2008 at 1:51 AM  

लड़खड़ाते कदमो को देख लोग मुस्कराते
कोई कहता शराबी तो कई पागल बुलाते
पर कोई न होता जो मुझे सम्हाल पाता
गिरे देखकर अपना हाथ बढ़ाता
जिसकी तलाश में खुद को गिराती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं
diye ke sath hai bati lekin hum andhero ke sathi...kyun?
kisika sath nahi kisi ka hath nahi.....

Unknown August 19, 2008 at 12:59 AM  

TERA SAANYI TUJJHA ME,
JYON PUNHPAN ME WAS,
KASTURI KO MRUG JO,
FIR-FIR DHUNDHE WAS...

SORRY I DONT KNOW MORE AS I M PHILOSOPHER AND I STILL FELT THIS
TRUTH IN LIFE.....
MR.JAIN,INDORE(INDIA)

Yatish Jain September 25, 2008 at 8:57 PM  

जब हम सुख की चाह करते है तो वो कभी नही मिलता फिर भी हम उसका पीछा करते रहते है गली-गली. जैसे ही हम उसकी चाह खत्म कर देते है पीछा करना छोड देते है वो मिल जाता है अगले चोराहे पर. खुशिया ऐसे ही मिलती है क़तरा-क़तरा

vandana gupta December 18, 2008 at 3:04 PM  

wo sukh to kabhi tha hi nahi.........inhi panktiyon mein sab kuch kah diya.bahut khoob

खोरेन्द्र January 30, 2010 at 9:09 PM  

अधूरे एहसास के साथ मैं चलती रही,
मिलन की आस लिए कल – कल बहती रही
कभी किसी झील, तो कभी नहर से मिली ,
कभी झरने में मिलकर, संग संग गिरी
मिला न वो,जो मुझमे मिलकर मुझे संवारे
मेरे रूप का श्रगार कर इसे और निखारे
जिसके लिए अपने वजूद को मिटाती रही
वो सुख तो कभी था ही नहीं

vah puri rachna bahut achchhii hai

aapko salam

kya baat hai.........very nice

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