Thursday, July 17, 2008

खो गये

आँखों से गुलिस्तान वो, खवाबों के खो गये
रस घोलते बदन थे, गुलाबों के खो गये

वो बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गयी
क़िस्से बग़ावती वो, किताबों के खो गये

देखो वो मिट गये, मुक़द्दर की मार से
मिलते थे जो निशान, नवाबों के खो गये

उलझन में हो जब कि, हर शख्स शहर का
तो सिलसिले वो शोख, जवाबो के खो गये

खामोश क्यूँ खड़ी हो, कि अब मुस्करा भी दो
भीगे हुए जो दिन थे, अज़ाबों के खो गये

48 comments:

कुश July 17, 2008 at 11:54 PM  

वो बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गयी
क़िस्से बग़ावती वो, किताबों के खो गये

क्या खूब शेर कहा श्रद्धा जी

राकेश खंडेलवाल July 18, 2008 at 12:15 AM  

अच्छा लिखा है आपने.

सुशील छौक्कर July 18, 2008 at 12:21 AM  

जी बहुत खूब,

वो बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गयी
क़िस्से बग़ावती वो, किताबों के खो गये

देखो वो मिट गये, मुक़द्दर की मार से
मिलते थे जो निशान, नवाबों के खो गये

रंजू भाटिया July 18, 2008 at 12:28 AM  

उलझन में हो जब कि, हर शख्स शहर का
तो सिलसिले वो शोख, जवाबो के खो गये
बहुत खूब

परमजीत सिहँ बाली July 18, 2008 at 12:55 AM  

देखो वो मिट गये, मुक़द्दर की मार से
मिलते थे जो निशान, नवाबों के खो गये

बहुत बढिया!!

कुमार पंकज July 18, 2008 at 12:56 AM  

खुद 'ग़ज़ल' की उँगलियों से जो 'ग़ज़ल' पिघली है......अल्फाजों से उसकी तारीफ करके उसके कोहेकाफ जैसे कद को बौना नहीं करना चाहते......! खामोशी के दिलकश होंठों से निकलती......मन की केसरिया साँसों में रची-बसी प्रशंसा को महसूस कीजियेगा..........!!

--कुमार पंकज

रंजन गोरखपुरी July 18, 2008 at 1:16 AM  

वो बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गयी
क़िस्से बग़ावती वो, किताबों के खो गये

wah ji wah!!! Bahut khoob!!

राज भाटिय़ा July 18, 2008 at 4:02 AM  

खामोश क्यूँ खड़ी हो, कि अब मुस्करा भी दो
भीगे हुए जो दिन थे, अज़ाबों के खो गये
कया बात हे,अब किस किस शेर पर दाद दे सभी एक से बड कर एक हे, धन्यवाद

राजीव तनेजा July 18, 2008 at 10:32 AM  

एक से बढकर हर एक शेर...तालियाँ ...

समयचक्र July 18, 2008 at 10:45 AM  

उलझन में हो जब कि, हर शख्स शहर का
तो सिलसिले वो शोख, जवाबो के खो ग
शेर अच्छा लिखा श्रद्धा जी.

PREETI BARTHWAL July 18, 2008 at 2:13 PM  

उलझन में हो जब कि, हर शख्स शहर का
तो सिलसिले वो शोख, जवाबो के खो गये

बहुत बढिया

डॉ .अनुराग July 18, 2008 at 2:51 PM  

उलझन में हो जब कि, हर शख्स शहर का
तो सिलसिले वो शोख, जवाबो के खो गये

खामोश क्यूँ खड़ी हो, कि अब मुस्करा भी दो
भीगे हुए जो दिन थे, अज़ाबों के खो गये

bahut khoob.....

!!अक्षय-मन!! July 18, 2008 at 5:37 PM  

BAHUT SUNDAR BAHUT MANMOHAK KALPANA HAI....

pawan arora July 18, 2008 at 6:05 PM  

aap ka likha ek jaadu hai jo bahut khubsurat hai aap jaisai vyktitv sai dosti kar khushi hoti hai aap likhti rahey hum ho na ho aap hamesha rahey ..dost

DJ July 18, 2008 at 6:15 PM  

WOw bahut khoob ji....great depth...maja aa gaya padkar....keep writing.!!

Rajesh Roshan July 18, 2008 at 6:35 PM  

बहुत ही खुबसूरत

गीता पंडित July 18, 2008 at 6:52 PM  

वाह्.........

एक शब्द....मेरे मन की
बात कहने के लियें पर्याप्त है,

स्-स्नेह

गीता पंडित

Anil Pusadkar July 18, 2008 at 6:59 PM  

woh bolti zubaan kahaan jaa ke so ghiagyi............badhaiya,nahi, bahut bahut bahut badhiya

नीरज गोस्वामी July 18, 2008 at 7:44 PM  

बेहद खूबसूरत ग़ज़ल...हर शेर कबीले तारीफ है..वाह.
नीरज

डाॅ रामजी गिरि July 18, 2008 at 8:24 PM  

"वो बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गयी
क़िस्से बग़ावती वो, किताबों के खो गये "

अच्छा लिखा है आपने.

संत शर्मा July 18, 2008 at 11:13 PM  

Yu to har sher hi achcha hai lakin

देखो वो मिट गये, मुक़द्दर की मार से
मिलते थे जो निशान, नवाबों के खो गये

behad achcha hai. Bahut Khubsurat.

Doobe ji July 19, 2008 at 12:52 AM  

bahut hi sundar likha hai apne doobeyji doob gaye apki in chand lineon mein

pallavi trivedi July 19, 2008 at 1:44 AM  

वो बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गयी
क़िस्से बग़ावती वो, किताबों के खो गये
kya baat hai...bahut umda.

Udan Tashtari July 19, 2008 at 3:19 AM  

वाह! बहुत सुन्दर.बहुत बधाई.

ज़ाकिर हुसैन July 19, 2008 at 3:43 PM  

वो बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गयी
क़िस्से बग़ावती वो, किताबों के खो गये

देखो वो मिट गये, मुक़द्दर की मार से
मिलते थे जो निशान, नवाबों के खो गये
bahut shandaar !!!!
sach hai na ab wo historical bagawatain rahin aur na hi nawabiyatain
bahut khoob likha hai
umeed hai aage bhi aisi hi khubsurat ghazlain padhne ko milengi

ख्वाब है अफसाने हक़ीक़त के July 19, 2008 at 11:08 PM  

Bahut khoob, shraddha ji !

Deepak Gogia

Vinay July 21, 2008 at 12:56 AM  

वाह वाह! क्या ग़ज़ल है!

Unknown July 21, 2008 at 12:19 PM  

bahut khub!

Pramod Kumar Kush 'tanha' July 21, 2008 at 12:59 PM  

वो बोलती ज़बान, कहीं जा के सो गयी
क़िस्से बग़ावती वो, किताबों के खो गये

sunder bhaav...badhaayee....

मुकेश कुमार सिन्हा July 21, 2008 at 1:01 PM  

khamosh kyun ho, ab muskura bhi do........behad khubsurat!!

Shraddha jee, u r really a vry good sher writer, keep it up!!

mukesh!!

नीला आसमान July 21, 2008 at 10:40 PM  

उलझन में हो जब कि, हर शख्स शहर का
तो सिलसिले वो शोख, जवाबो के खो गये

nice!!!

vipinkizindagi July 23, 2008 at 6:59 PM  

अच्छा लिखा है

شہروز July 24, 2008 at 8:13 AM  

andaz tagazzul aayega magar dheere-dheere.
bahut kamyab hain aap yahan.

जयप्रकाश मानस July 24, 2008 at 12:51 PM  

मैंने आपकी कुछ ग़ज़लों से गुज़रा । लगा ग़जलों की पुराने हवेली से गुज़र रहा हूँ । मैडम, हिंदी ग़ज़लों की दुनिया विन्यास से नहीं किन्तु भावों और भावनाओं में काफी ऊँचाई पर जा चुकी है । आप शायद उससे वाक़िफ़ भी हों । आप अच्छा लिख रही हैं । भाव, इमेज, कहन मीटर भी सधा हुआ है । कुछ और लगातार शिल्प के बारे में चाहें तो आप ध्यान दे सकती हैं ।

कुछ खास लिखें तो हमारे लिए भेज सकती हैं । ग़ज़लों के अलावा भी कुछ । आप परदेश में रहकर इतना कर रही हैं । हम मुझे हिंदीसेवी के लिए गौरव का विषय है । सादर

www.srijangatha.com

Pragya July 24, 2008 at 1:40 PM  

bahut badhiya shraddha... bahut achha likhti ho..

योगेन्द्र मौदगिल July 24, 2008 at 2:25 PM  

achhi rachna kew liye badhai

ilesh July 24, 2008 at 2:31 PM  

खामोश क्यूँ खड़ी हो, कि अब मुस्करा भी दो
भीगे हुए जो दिन थे, अज़ाबों के खो गये

nice ehsas....

डा ’मणि July 25, 2008 at 9:07 PM  

वाह श्रद्धा जी वाह

" वो बोलती ज़ुबान ,कहीं जा के सो गयी
किस्से बग़ावती वो किताबों मे खो गये "


भाई वाह ...क्या सशक्त शेर है मज़ा आ गया
मैने अभी आपके ब्लॉग की काफ़ी रचनाए पढ़ी
मेरी दिली - दाद स्वीकार करिएगा -

चलिए एक ग़ज़ल के कुछ शेर भेज रहा हूँ देखिएगा -अगर अल्फाज अन्दर से निकल कर आ नहीं सकते
नशा बनकर जमाने पर ,कभी वो छा नहीं सकते

बहुत डरपोक हो सचमुच ,तुम्हारा हौसला कम है
किसी भी हाल मैं तुम मंजिलों को पा नहीं सकते

उसे सबकुछ पता है , कौन कैसे याद करता है
किसी छापे -तिलक से तुम उसे बहला नहीं सकते

सुरों की भूलकर इनसे कभी उम्मीद मत करना
समंदर चीख सकते हैं ,समंदर गा नहीं सकते

चुनौती दे रहा हूँ मैं यहाँ के सूरमाओं को
जहाँ पे आ गया हूँ मैं वहां तुम आ नहीं सकते .....

डॉ उदय ' मणि' कौशिक
kota, rajasthaan
umkaushik@gmail.com

वैसे ये ग़ज़ल मेरे ब्लॉग पर है
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ , श्रद्धा जी ,
साथ ही गुज़ारिश करूँगा की यही स्नेह बनाए रखें
और , देखती रहें
http://mainsamayhun.blogspot.com

Unknown July 25, 2008 at 11:12 PM  

muze kavita ki jyada smaz to nhi but muze ye padkr kafi achha lga ....

Harshad Jangla July 25, 2008 at 11:50 PM  

Nice Gazal.

Keep it up plz.

-Harshad Jangla
Atlanta, USA

सरस्वती प्रसाद July 26, 2008 at 1:06 AM  

bahut mushkil lagta hai aana,par aane par sari thaaan chali gai,
bahut achhi lagi kavita...

केतन July 28, 2008 at 1:15 AM  

खामोश क्यूँ खड़ी हो, कि अब मुस्करा भी दो
भीगे हुए जो दिन थे, अज़ाबों के खो गये


haasil-e-ghazal sher hai ye ... bahut hi bejod jazbaat ... khoobsurat kalaam ...

!!अक्षय-मन!! August 12, 2008 at 1:53 AM  

उलझन में हो जब कि, हर शख्स शहर का
तो सिलसिले वो शोख, जवाबो के खो गये
kya baat hai kya dam hai aapki lekhni mai bahut hi unda rachna......

Puja Upadhyay August 12, 2008 at 10:36 PM  

wow...awesome!!!
har sher dheron baatein kah jaata hai

"अर्श" September 12, 2008 at 1:07 AM  

aapke blog ki ghazalen pahali bar padh raha hun wakai bahot khub maza aagaya...har sher me wajan hai sundar rachana ..

देखो वो मिट गये, मुक़द्दर की मार से
मिलते थे जो निशान, नवाबों के खो गये

bahot khub .....mere blog me bhi aapka khub swagat hai...

regards
Arsh

प्रदीप मानोरिया September 20, 2008 at 5:57 PM  

देखो वो मिट गये, मुक़द्दर की मार से
मिलते थे जो निशान, नवाबों के खो गये
सुंदर भावाभिव्यक्ति बधाई
थोडा समय निकालें मेरे ब्लॉग पर पुन: पधारें

Dev October 16, 2008 at 6:47 PM  

Bahut acha likha hai...
Badhai...
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Anonymous November 26, 2009 at 9:47 AM  

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