वो लड़की
बस की खिड़की से सिर टिकाए वो लड़की,
सूनी आँखों से जाने क्या, पढ़ा करती है,
आंसूओं को छुपाए हुए वो अक्सर,
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
हर बात से बेज़ार हो गयी शायद
हँसी उसकी कही खो गयी शायद
गिला किस बात का करे, और करे किससे,
हर आहट पर उम्मीद मिटा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
नकामयाब हर कोशिश उससे गुफ्तगू की
अफवाह बनी अब तो पगली की आरज़ू की
कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई
हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
मैं देख कर हूँ हैरान उसकी वफ़ाओं को
कब कौन सुन सकेगा खामोश सदाओं को
लब उसके कब खुलेगे कोई गिला लिए
कब किसी और को कटघरे में खड़ा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
25 comments:
hi sid bhaut khuboo laga mujhe
मैं देख कर हूँ हैरान उसकी वफ़ाओं को
कब कौन सुन सकेगा खामोश सदाओं को .
Bahut sundar . pratidin likhati rahe . dhanyawaad
badhiya likha. badhai!
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
--बहुत ही बढ़िया. बधाई.
kya baat hai shrddha ji..bahut khoob!
Bahut badhiya hai.
bhut acche likhati rhe.
wakai bahut badhiya
बहुत दिन बाद पढ़ा आपको,
लगा कि हां कुछ पढ़ा है!
आपकी ग़ज़ल "वो लड़की" पढ़ी.
मुझे अपने अतीत के वो तीखे विचार पुनः याद आ गए, जब बहुतेरे ऐसे लोग जो
खामोशी से,
बिना किसी की सहायता लिए,
बिना किसी को बाधित किए,
पूर्ण तल्लीनता
से अपने कार्य को सर-अंजाम दिया करते हैं.
ऐसे लोग न तो MBA होता हैं न कोई विशेष डिग्री धारक, पर अपनी धुन के पक्के और कर्तब्यों के प्रति पूर्ण समर्पित होते हैं......
- इन्हे किसी से कुछ चाहत नहीं होती इसलिए खामोश होते हैं,
- इन्हे किसी प्रचार की आवश्यकता नही होती इसलिए खामोश होते हैं
- काफी कुछ जानने के बाद भी अपने ज्ञान को अधूरा मानते हैं, इसलिए खामोश रहते हैं
- ये जानते हैं की यदि अगला समझदार है , तो उसे कुछ बताने की क्या जरूरत है और यदि वह मूर्ख है तो कितना भी कुछ बताओ, भैस के आगे बीन बजाना होगा, इसलिए ये खामोश हैं
-यदि जरूरतमंद ज्ञानार्जन की कामना लिए आता है तो उसे वो शांतिपूर्वक (शांतिवन माफिक) ज्ञान देते हैं , इसलिए ये खामोश हैं
जो खामोश नहीं हो सकते, कितना भी ज्ञान बटोरे, कितनी भी डिग्री प्राप्त करें, वे
-धन कमा सकते हैं,
-डरा- धमका कर प्रशासन चला सकते हैं
-अपने प्रचार के हथकंडे अपना सकते हैं
-समाज में रुतबा धिका कर रह सकते हैं
पर ईश्वर ने जिस हेतु इन्सान को बनाया, क्या ये लोग वो कर्तब्य पूर्ण करने की जरा भी परवाह करते हैं, कितना भी ज्ञान हो, पर अहम उनके सही कर्तब्य की दिशा को नेपथ्य में ही रहने देता है.
* अनपढ़ कबीर को हर कोई पढता है,
* मुंबई के डिब्बा वाले MBA वालों को पढ़ते हैं,
* लालू जी की बकरी दुहने की कला ( मैनेजमेंट) MBA वालों को शिक्षित करने में मददगार बनता है,
* हर घर में गृहणी Kitchen Management अपने ख़ुद के skill से बिना कहीं अन्य जगह पढ़े ही करती है
ऐसे ही उदाहरणों से भरा है ये संसार, फिर भी हम खामोशी की गहराई को नही पहचान पातें हैं तो ये हमारे अहम का ही दोष है.
कभी किसी से इसी सन्दर्भ में बहुत गहरी बात सुनी थी, उसे ही उध्रत कर रहा हूँ.
" If you can not understand my silence, you can not understand my words".
लगता है बात लम्बी होती जा रही है, सो विराम देने का प्रयास कर रहा हूँ , इसी सन्दर्भ में मेरी एक कविता प्रस्तुत है :
श्रद्धा
(२७)
नहीं बुलाती मधुशाला उनको
जो पीने से कतराता है
छक कर ये तो खूब पिलाती
जो ख़ुद ही पीने आता है
क्यों कहते हो शिक्षा देने को
लेने वाला तो ले ही जाता है
श्रद्धा रही जहाँ जिसकी जैसी
मनचाहा वह हरदम पाता है.
चन्द्र मोहन गुप्ता
मैं देख कर हूँ हैरान उसकी वफ़ाओं को
कब कौन सुन सकेगा खामोश सदाओं को
लब उसके कब खुलेगे कोई गिला लिए
कब किसी और को कटघरे में खड़ा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
--wah shradha ji --
bahut achcha likha hai aap ne-
ज़िन्दगी के बिलकुल पास होकर हौले -हौले मर्म को भेदती ये पंक्तियाँ कई सवाल खड़े करती हैं ,जवाब तो है लेकिन हम और हमारा समाज इन से बच कर गुज़र जाने में ही अपनी बेहतरी समझता है .यानी अफ़सोस तो करते हैं इमदाद नहीं करते .
हँसी उसकी कही खो गयी शायद
गिला किस बात का करे, और करे किससे,
कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई
हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
बहुत प्यारी सुन्दर रचना लिखी है आपने।
पता नही ऐसे इंसानो को लोग पागल क्यो कहते है। इस दुनिया का ऐसा रिवाज क्यो है।
नकामयाब हर कोशिश उससे गुफ्तगू की
अफवाह बनी अब तो पगली की आरज़ू की
कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई
हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
मैं देख कर हूँ हैरान उसकी वफ़ाओं को
कब कौन सुन सकेगा खामोश सदाओं को
लब उसके कब खुलेगे कोई गिला लिए
कब किसी और को कटघरे में खड़ा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
वाह वाह......कहाँ छिपी थी आप....इतने दिनों.....एक एक लफ्ज़ सीने में उतर गया.......
lab khaamosh !!!andar kya hai..ghutan ya aseem shaanti? kaun jaaney..shraddha..bahut acchaa likha hai aapney
श्रद्धा जी बहुत अच्छी कविता लिखी आपने गजब किया कम गेंदों में सेंचुरी बनाने का रिकार्ड बनाया है आपने अति सुंदर लिखते रहो
बधाई हो आपको
aisi nazm mehsus karne wala hi koi likh sakta hain...varna log kahan aisi baate samaj paate hain?
आंसूओं को छुपाए हुए वो अक्सर,
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है...
bahot khub...
sundar kavita!!
बहुत सही शब्द चित्र है श्रध्धा जी -
लिखती रहीये ..
- लावण्या
बहुत प्यारा गीत है और निम्न पंक्तियां तो लाजवाब करती हैं-
^हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है^
"आंसूओं को छुपाए हुए वो अक्सर,
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है "
"कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई
हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है"
आपका लिखा एक-एक शब्द उसकी दशा...उसके मन में चल रहे विचारों को व्यक्त करने में सफल रहा है।...बधाई स्वीकार करें
श्रद्धा जी
नमस्कार
अपनी रचनाओं में शब्दों और भावनाओं का जो आप ताल मेल बैठाती हैँ वो काबिले तारीफ रहता है.
नाकामयाब हर कोशिश उससे गुफ्तगू की
अफवाह बनी अब तो पगली की आरज़ू की
कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई
हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
रचना की सभी पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं
आपका
विजय तिवारी "किसलय"
नकामयाब हर कोशिश उससे गुफ्तगू की
अफवाह बनी अब तो पगली की आरज़ू की
कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई
हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
श्रद्धा जी
नमस्कार
अपनी रचनाओं में शब्दों और भावनाओं का जो आप ताल मेल बैठाती हैँ वो काबिले तारीफ रहता है.
नाकामयाब हर कोशिश उससे गुफ्तगू की
अफवाह बनी अब तो पगली की आरज़ू की
कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई
हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
रचना की सभी पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं
आपका
विजय तिवारी "किसलय"
नकामयाब हर कोशिश उससे गुफ्तगू की
अफवाह बनी अब तो पगली की आरज़ू की
कोई कहे घमंडी, पागल बुलाए कोई
हर बात सुनकर, वो बस हंसा करती है
खामोश सी खुद से ही लड़ा करती है
bahut khoobsoorat..
koi jaise apne bhaav likh daale...
aur kehne ke layak nahi ham.
likhte rahe..
bahut khoob shraddha ji...aapko padna achcha lagta hai... :)
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